जय श्री राधे कृष्णा ! आज हम श्री भगवतगीता के चौदहवे अध्याय – ‘प्रकृति के तीन गुण ‘ पर चर्चा करेंगे। हमारी आशा है आप हर एक शब्द का अर्थ समझ कर चरितार्थ करेंगे व् इस बदलते युग में प्रभु श्री कृष्ण के उपदेशों , उनकी सीख , उनके विचारों और जीवन की सत्यता जो उन्होंने हमें बताई है उसे हम अपने नई पीढ़ी को भी बता कर समझा कर,इस पवित्र सनातन परंपरा को जीवित रखने में अपना योगदान देगें। Shree Bhagwat Geeta Saar – Adhayay 14 – Prakrati Ke Teen Gun – भाग 2 – Hindi
श्लोक 14.21
अर्जुन उवाच |
कैर्लिङ्गैस्त्रीन्गुणानेतानतीतो भवति प्रभो |
किमाचारः कथं चेतांस्त्रीन्गुणानतिवर्तते || २१ ||
अर्जुनःउवाच – अर्जुन ने कहा; कैः – किन; लिङगैः – लक्षणों से; त्रीन् – तीनों; गुणान् – गुणों को; एतान् – ये सब; अतीतः – लाँघा हुआ; भवति – है; प्रभो – हे प्रभु; किम् – क्या; आचारः – आचरण; कथम् – कैसे; च – भी; एतान् – ये; त्रीन् – तीनों; गुणान् – गुणों को; अतिवर्तते – लाँघता है |
भावार्थ
अर्जुन ने पूछा – हे भगवान्! जो इन तीनों गुणों से परे है, वह किन लक्षणों के द्वारा जाना जाता है ? उसका आचरण कैसा होता है ? और वह प्रकृति के गुणों को किस प्रकार लाँघता है ?
श्लोक 14.22 – 25
श्रीभगवानुवाच |
प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव |
न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति || २२ ||
उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते |
गुणा वर्तन्त इत्येवं योSवतिष्ठति नेङ्गते || २३ ||
समदु:खसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः |
तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः || २४ ||
मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयो: |
सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते || २५ ||
श्रीभगवान् उवाच – भगवान् ने कहा; प्रकाशम् – प्रकाश; च – तथा; प्रवृत्तिम् – आसक्ति; च – तथा; मोहम् – मोह; एव च – भी; पाण्डव – हे पाण्डुपुत्र; न द्वेष्टि – घृणा नहीं करता; सम्प्रवृत्तानि – यद्यपि विकसित होने पर; न निवृत्तानि – न ही विकास रुकने पर; काङ्क्षति – चाहता है; उदासीन-वत् – निरपेक्ष की भाँति ;आसीनः – स्थित; गुणैः – गुणों के द्वारा; यः – जो; न – कभी नहीं; विचाल्यते – विचलित होता है; गुणाः – गुण; वर्तन्ते – कार्यशील होते हैं; इति एवम् – इस प्रकार जानते हुए; यः – जो; अवतिष्ठति – रहा आता है; न – कभी नहीं; ईङगते – हिलता डुलता है; सम – समान; दुःख – दुख; सुखः – तथा सुख में; स्व-स्थः – अपने में स्थित; सम – समान रूप से; लोष्ट – मिट्टी का ढेला; अश्म – पत्थर; काञ्चनः – सोना; तुल्य – समभाव; प्रिय – प्रिय; अप्रियः – तथा अप्रिय को; धीरः – धीर; तुल्य – समान; निन्दा – बुराई; आत्म-संस्तुति – तथा अपनी प्रशंसा से; मान – सम्मान; अपमानयोः – तथा अपमान में; तुल्यः – समान; मित्र – मित्र; अरि – तथा शत्रु के; पक्षयोः – पक्षों या दलों को; सर्व – सबों का; आरम्भ – प्रयत्न, उद्यम; परित्यागी – त्याग करने वाला; गुण-अतीतः – प्रकृति के गुणों से परे; सः – वह; उच्यते – कहा जाता है |
भावार्थ
भगवान् ने कहा – हे पाण्डुपुत्र! जो प्रकाश, आसक्ति तथा मोह के उपस्थित होने पर न तो उनसे घृणा करता है और न लुप्त हो जाने पर उनकी इच्छा करता है, जो भौतिक गुणों की इन समस्त परिक्रियाओं से निश्चल तथा अविचलित रहता है और यह जानकर कि केवल गुण की क्रियाशील हैं, उदासीन तथा दिव्य बना रहता है, जो अपने आपमें स्थित है और सुख तथा दुख को एकसमान मानता है, जो मिट्टी के ढेले, पत्थर एवं स्वर्ण के टुकड़े को समान दृष्टि से देखता है, जो अनुकूल तथा प्रतिकूल के प्रति समान बना रहता है, जो धीर है और प्रशंसा तथा बुराई, मान तथा अपमान में समान भाव से रहता है, जो शत्रु तथा मित्र के साथ सामान व्यवहार करता है और जिसने सारे भौतिक कार्यों का परित्याग कर दिया है, ऐसे व्यक्ति को प्रकृति के गुणों से अतीत कहते हैं |
श्लोक 14.26
मां च योSव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते |
स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते || २६ ||
माम् – मेरी; च – भी; यः – जो व्यक्ति; अव्यभिचारेण – बिना विचलित हुए; भक्ति-योगेन – भक्ति से; सेवते – सेवा करता है; सः – वह; गुणान् – प्रकृति के गुणों को; समतीत्य – लाँघ कर; एतान् – इन सब; ब्रह्म-भूयाय – ब्रह्म पद तक ऊपर उठा हुआ; कल्पते – हो जाता है |
भावार्थ
जो समस्त परिस्थितियों में अविचलित भाव से पूर्ण भक्ति में प्रवृत्त होता है, वह तुरन्त ही प्रकृति के गुणों को लाँघ जाता है और इस प्रकार ब्रह्म के स्तर तक पहुँच जाता है |
श्लोक 14.27
ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च |
शाश्र्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च || २७ ||
ब्रह्मणः – निराकार ब्रह्मज्योति का; हि – निश्चय ही; प्रतिष्ठा – आश्रय; अहम् – मैं हूँ; अमृतस्य – अमर्त्य का; अव्ययस्य – अविनाशी का; च – भी; शाश्र्वतस्य – शाश्र्वत का; च – तथा; धर्मस्य – स्वाभाविक स्थिति (स्वरूप) का; सुखस्य – सुख का; एकान्तिकस्य – चरम, अन्तिम, च – भी |
भावार्थ
और मैं ही उस निराकार ब्रह्म का आश्रय हूँ, जो अमर्त्य, अविनाशी तथा शाश्र्वत है और चरम सुख का स्वाभाविक पद है |
इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता के चौदहवें अध्याय “प्रकृति के तीन गुण” का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ |
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