जय श्री राधे कृष्णा ! आज हम श्री भगवतगीता के पन्द्रहवे अध्याय – ‘पुरुषोत्तम योग ‘ पर चर्चा करेंगे। हमारी आशा है आप हर एक शब्द का अर्थ समझ कर चरितार्थ करेंगे व् इस बदलते युग में प्रभु श्री कृष्ण के उपदेशों , उनकी सीख , उनके विचारों और जीवन की सत्यता जो उन्होंने हमें बताई है उसे हम अपने नई पीढ़ी को भी बता कर समझा कर,इस पवित्र सनातन परंपरा को जीवित रखने में अपना योगदान देगें। Shree Bhagwat Geeta Saar – Adhayay 15 – Purushottam Yog – भाग 2 – Hindi
श्लोक 15.11
यतन्तो योगिनश्र्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम् |
यतन्तोSप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः || ११ ||
यतन्तः – प्रयास करते हुए; योगिनः – अध्यात्मवादी, योगी; च – भी; एनम् – इसे; पश्यन्ति – देख सकते हैं; आत्मनि – अपने में; अवस्थितम् – स्थित; यतन्तः – प्रयास करते हुए; अपि – यद्यपि; अकृत-आत्मानः – आत्म-साक्षात्कार से विहीन; न – नहीं; एनम् – इसे; पश्यन्ति – देखते हैं; अचेतसः – अविकसित मनों वाले, अज्ञानी |
भावार्थ
आत्म-साक्षात्कार को प्राप्त प्रयत्नशील योगीजन यह स्पष्ट रूप से देख सकते हैं । लेकिन जिनके मन विकसित नहीं हैं और जो आत्म-साक्षात्कार को प्राप्त नहीं हैं, वे प्रयत्न करके भी यह नहीं देख पाते कि क्या हो रहा है ।
श्लोक 15.12
यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेSखिलम् |
यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम् || १२ ||
यत् – जो; आदित्य-गतम् – सूर्यप्रकाश में स्थित; तेजः – तेज; जगत् – सारा संसार; भासयते – प्रकाशित होता है; अखिलम् – सम्पूर्ण; यत् – जो; चन्द्रमसि – चन्द्रमा में; यत – जो; च – भी; अग्नौ – अग्नि में; तत् – वह; तेजः – तेज; विद्धि – जानो; मामकम् – मुझसे |
भावार्थ
सूर्य का तेज, जो सारे विश्र्व के अंधकार को दूर करता है, मुझसे ही निकलता है | चन्द्रमा तथा अग्नि के तेज भी मुझसे उत्पन्न हैं |
श्लोक 15.13
गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा |
पुष्णामि चौषधी: सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः || १३ ||
गाम् – लोक में; आविष्य – प्रवेश करके; च – भी; भूतानि – जीवों का; धारयामी – धारण करता हूँ; अहम् – मैं; ओजस – अपनी शक्ति से; पुष्णामि – पोषण करता हूँ ; च – तथा; औषधिः – वनस्पतियों का; सर्वाः – समस्त; सोमः – चन्द्रमा; भूत्वा – बनकर; रस-आत्मकः – रस प्रदान करनेवाला ।
भावार्थ
मैं प्रत्येक लोक में प्रवेश करता हूँ और मेरी शक्ति से सारे लोक अपनी कक्षा में स्थित रहते हैं । मैं चन्द्रमा बनकर समस्त वनस्पतियों को जीवन-रस प्रदान करता हूँ ।
श्लोक 15.14
अहं वैश्र्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः |
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम् || १४ ||
अहम् – मैं; वैश्र्वानरः – पाचक-अग्नि के रूप में पूर्ण अंश; भूत्वा – बन कर; प्राणिनाम् – समस्त जीवों के; देवम् – शरीरों में; आश्रितः – स्थित; प्राण – उच्छ्वास, विश्र्वास; अपान – श्र्वास; समायुक्तः – सन्तुलित रखते हुए; पचामि – पचाता हूँ; अन्नम् – अन्न को; चतुः-विधम् – चार प्रकार के |
भावार्थ
मैं समस्त जीवों के शरीरों में पाचन-अग्नि (वैश्र्वानर) हूँ और मैं श्र्वास-प्रश्र्वास (प्राण वायु) में रह कर चार प्रकार के अन्नों को पचाता हूँ ।
श्लोक 15.15
सर्वस्य चाहं ह्रदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च |
वेदैश्र्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् || १५ ||
सर्वस्य – समस्त प्राणियों; च – तथा; अहम् – मैं; हृदि – हृदय में; सन्निविष्टः – स्थित; मत्तः – मुझ से; स्मृतिः – स्मरणशक्ति; ज्ञानम् – ज्ञान; अपोहनम् – विस्मृति; च – तथा; वेदैः – वेदों के द्वारा; च – भी; सर्वैः – समस्त; अहम् – मैं हूँ; एव – निश्चय ही; वेद्यः – जानने योग्य, ज्ञेय; वेदान्त-कृत – वेदान्त के संकलकर्ता; वेदवित् – वेदों का ज्ञाता; एव – निश्चय ही; च – तथा; अहम् – मैं |
भावार्थ
मैं प्रत्येक जीव के हृदय में आसीन हूँ और मुझ से ही स्मृति, ज्ञान तथा विस्मृति होती है | मैं ही वेदों के द्वारा जानने योग्य हूँ | निस्सन्देह मैं वेदान्त का संकलनकर्ता तथा समस्त वेदों का जानने वाला हूँ |
श्लोक 15.16
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्र्चाक्षर एव च |
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोSक्षर उच्यते || १६ ||
द्वौ – दो; इमौ – ये; पुरुषौ – जीव; लोके – संसार में; क्षरः-च्युत; च-तथा; अक्षरः-अच्युत; एव-निश्चय ही; च-तथा; क्षरः-च्युत ; सर्वाणि-समस्त; भूतानि-जीवों को; कूट-स्थः- एकत्व में; अक्षरः-अच्युत; उच्यते-कहा जाता है ।
भावार्थ
जीव दो प्रकार हैं – च्युत तथा अच्युत । भौतिक जगत् में प्रत्येक जीव च्युत (क्षर) होता है और आध्यात्मिक जगत् में प्रत्येक जीव अच्युत कहलाता है ।
श्लोक 15.17
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाह्रितः |
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्र्वरः || १७ ||
उत्तमः – श्रेष्ठ; पुरुषः – व्यक्ति, पुरुष; तु – लेकिन; अन्यः – अन्य; परम – परम; आत्मा – आत्मा; इति – इस प्रकार; उदाहृतः – कहा जाता है; यः – जो; लोक – ब्रह्माण्ड के; त्रयम् – तीन विभागों में; आविश्य – प्रवेश करके; विभिर्ति – पालन करता है; अव्ययः – अविनाशी; ईश्र्वरः – भगवान् |
भावार्थ
इन दोनों के अतिरिक्त एक परम पुरुष परमात्मा है जो साक्षात् अविनाशी है और जो तीनों लोकों में प्रवेश करके उनका पालन कर रहा है ।
श्लोक 15.18
यस्मात्क्षरमतीतोSहमक्षरादपि चोत्तमः |
अतोSस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः || १८ ||
यस्मात् – चूँकि; क्षरम् – च्युत; अतीतः – दिव्य; अहम् – मैं हूँ; अक्षरात् – अक्षर के परे; अपि – भी; च – तथा; उत्तमः – सर्वश्रेष्ठ; अतः – अतएव; अस्मि – मैं हूँ; लोके – संसार में; वेदे – वैदिक साहित्य में; च – तथा; प्रथितः – विख्यात; पुरुष-उत्तमः – परम पुरुष के रूप में |
भावार्थ
चूँकि मैं क्षर तथा अक्षर दोनों के परे हूँ और चूँकि मैं सर्वश्रेष्ठ हूँ, अतएव मैं इस जगत् में तथा वेदों में परम पुरुष के रूप में विख्यात हूँ |
श्लोक 15.19
यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम् |
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत || १९ ||
यः – जो; माम् – मुझको; एवम् – इस प्रकार; असम्मूढः – संशयरहित; जानाति – जानता है; पुरुष-उत्तमम् – भगवान्; सः – वह; सर्व-वित् – सब कुछ जानने वाला; भजति – भक्ति करता है; माम् – मुझको; सर्व-भावेन – सभी प्रकार से; भारत – हे भरतपुत्र |
भावार्थ
जो कोई भी मुझे संशयरहित होकर पुरुषोत्तम भगवन के रूप में जानता है, वह सब कुछ जानता है । अतएव हे भरतपुत्र! वह व्यक्ति मेरी पूर्ण भक्ति में रत होता है ।
श्लोक 15.20
इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ |
एतद्बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्र्च भारत || २० ||
इति – इस प्रकार; गुह्य-तमम् – सर्वाधिक गुप्त; शास्त्रम् – शास्त्र; इदम् – यह; उक्तम् – प्रकट किया गया; मया – मेरे द्वारा; अनघ – हे पापरहित; एतत् – यह; बुद्ध्वा – समझ कर; बुद्धिमान – बुद्धिमान; स्यात् – हो जाता है; कृत-कृत्यः – अपने प्रयत्नों में परम पूर्ण; च – तथा; भारत – हे भरतपुत्र |
भावार्थ
हे अनघ! यह वैदिक शास्त्रों का सर्वाधिक गुप्त अंश है, जिसे मैंने अब प्रकट किया है | जो कोई इसे समझता है, वह बुद्धिमान हो जाएगा और उसके प्रयास पूर्ण होंगे
इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता के पन्द्रहवें अध्याय “पुरुषोत्तम योग” का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूरा हुआ |
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