श्रीमद्भागवत गीता – सार | अध्याय 11 : विराट रूप | Shri Bhagwat Geeta Saar – 11 – Hindi – भाग 2

जय श्री राधे कृष्णा ! आज हम श्री भगवतगीता के ग्यारहवे अध्याय – ‘विराट रूप’ पर चर्चा करेंगे। हमारी आशा है आप हर एक शब्द का अर्थ समझ कर चरितार्थ करेंगे व् इस बदलते युग में प्रभु श्री कृष्ण के उपदेशों , उनकी सीख , उनके विचारों और जीवन की सत्यता जो उन्होंने हमें बताई है उसे हम अपने नई पीढ़ी को भी बता कर समझा कर,इस पवित्र सनातन परंपरा को जीवित रखने में अपना योगदान देगें। Shree Bhagwat Geeta Saar – Adhayay 11 – Virat Roop – Hindiभाग 2

श्लोक 11.31

आख्याहि मे को भवानुग्ररूपो नमोSस्तु ते देववर प्रसीद |
विज्ञातुमिच्छामि भवन्तमाद्यं न हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम् || ३१ ||

आख्याहि – कृपया बताएं; मे – मुझको; कः – कौन; भवान् – आप; उग्र-रूपः – भयानक रूप; नमः-अस्तु – नमस्कार को; ते – आपको; देव-वर – हे देवताओं में श्रेष्ठ; प्रसीद – प्रसन्न हों; विज्ञातुम् – जानने के लिए; इच्छामि – इच्छुक हूँ; भवन्तम् – आपको; आद्यम् – आदि; न – नहीं; हि – निश्चय ही; प्रजानामि – जानता हूँ; तव – आपका; प्रवृत्तिम् – प्रयोजन |

भावार्थ

हे देवेश! कृपा करके मुझे बतलाइये कि इतने उग्ररूप में आप कौन हैं? मैं आपको नमस्कार करता हूँ, कृपा करके मुझ पर प्रसन्न हों | आप आदि-भगवान् हैं | मैं आपको जानना चाहता हूँ, क्योंकि मैं नहीं जान पा रहा हूँ कि आपका प्रयोजन क्या है |

श्लोक 11.32

श्रीभगवानुवाच |

कालोSस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः |
ऋतेSपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे येSवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः || ३२ ||

श्रीभगवान् उवाच – भगवान् ने कहा; कालः – काल; अस्मि – हूँ; लोक – लोकों का; क्षय-कृत – नाश करने वाला; प्रवृद्धः – महान; लोकान् – समस्त लोगों को; समाहर्तुम् – नष्ट करने वाला; प्रवृत्तः – लगा हुआ; ऋते – बिना; अपि – भी; त्वाम् – आपको; न – कभी नहीं; भविष्यन्ति – होंगे; सर्वे – सभी; ये – जो; अवस्थिताः – स्थित; प्रति-अनीकेषु – विपक्ष में; योधाः – सैनिक ।

भावार्थ

भगवान् ने कहा – समस्त जगतों को विनष्ट करने वाला काल मैं हूँ और मैं यहाँ समस्त लोगों का विनाश करने के लिए आया हूँ । तुम्हारे (पाण्डवों के) सिवा दोनों पक्षों के सारे योद्धा मारे जाएँगे ।

श्लोक 11.33

तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रुन्भुंक्ष्व राज्यं समृद्धम् |
मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भाव सव्यसाचिन् || ३३ ||

तस्मात् – अतएव; त्वम् –तुम; उत्तिष्ट – उठो; यशः – यश; लभस्व – प्राप्त करो; जित्वा – जीतकर; शत्रून् –शत्रुओं को; भुङ्क्ष्व – भोग करो; राज्यम् – राज्य का; समृद्धम् – सम्पन्न; मया –मेरे द्वारा; एव – निश्चय ही; एते – ये सब; निहताः – मारे गये; पूर्वम् एव – पहलेही; निमित्त-मात्रम् – केवल कारण मात्र; भव – बनो; सव्य-साचिन् – हे सव्यसाची |

भावार्थ

अतः उठो! लड़ने के लिएतैयार होओ और यश अर्जित करो | अपने शत्रुओं को जीतकर सम्पन्न राज्य का भोग करो |ये सब मेरे द्वारा पहले ही मारे जा चुके हैं और हे सव्यसाची! तुम तो युद्ध मेंकेवल निमित्तमात्र हो सकते हो |

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Shri Shri Radha Govind Dev at Noida

श्लोक 11.34

द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं च कर्णं तथान्यानपि योधवीरान् |
मया हतांस्तवं जहि माव्यथिष्ठा युध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान् || ३४ ||

द्रोणम् च – तथा द्रोण; भीष्मम् – भीष्म भी; जयद्रथम् च – तथा जयद्रथ;कर्णम् – कर्ण; तथा – और; अन्यान् – अन्य; अपि – निश्चय ही; योध-वीरान् – महानयोद्धा; मया – मेरे द्वारा; हतान् – पहले ही मारे गये; त्वम् – तुम; जहि – मारो;मा – मत; व्यथिष्ठाः – विचलित होओ; युध्यस्व – लड़ो; जेता असि – जीतोगे; रणे –युद्ध में; सपत्नान् – शत्रुओं को |

भावार्थ

द्रोण, भीष्म, जयद्रथ, कर्ण तथा अन्य महान योद्धा पहले ही मेरे द्वारामारे जा चुके हैं | अतः उनका वध करो और तनिक भी विचलित न होओ | तुम केवल युद्ध करो| युद्ध में तुम अपने शत्रुओं को परास्त करोगे |

श्लोक 11.35

सञ्जय उवाच |

एतच्छ्रुत्वा वचनं केशवस्य कृताञ्जलिर्वेपमानः किरीती |
नमस्कृत्वा भूय एवाह कृष्णं सगद्गदं भीतभीतः प्रणम्य || ३५ ||

सञ्जयः उवाच – संजय ने कहा; एतत् – इस प्रकार; श्रुत्वा – सुनकर;वचनम् – वाणी; केशवस्य – कृष्ण की; कृत-अञ्जलिः – हाथ जोड़कर; वेपमानः – काँपतेहुए; किरीटी – अर्जुन ने; नमस्कृत्वा – नमस्कार करके; भूयः – फिर; एव – भी; आह –बोला; कृष्णम् – कृष्ण से; स-गद्गदम् – अवरुद्ध स्वर से; भीत-भीतः – डरा-डरा सा;प्रणम्य – प्रणाम करके |

भावार्थ

संजय ने धृतराष्ट्र से कहा- हे राजा! भगवान् के मुख से इन वचनों कोसुनकर काँपते हुए अर्जुन ने हाथ जोड़कर उन्हें बारम्बार नमस्कार किया | फिर उसनेभयभीत होकर अवरुद्ध स्वर में कृष्ण से इस प्रकार कहा |

श्लोक 11.36

अर्जुन उवाच |
स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या जगत्प्रहृष्यत्यनुरज्यते च |
रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसङ्घाः || ३६ ||

अर्जुनः उवाच – अर्जुन ने कहा; स्थाने – यह ठीक है; हृषीक-ईश – हेइन्द्रियों के स्वामी; तव – आपके; प्रकीर्त्या – कीर्ति से; जगत् – सारा संसार;प्रहृष्यति – हर्षित हो रहा है; अनुरज्यते – अनुरक्त हो रहा है; च – तथा; रक्षांसि– असुरगण; भीतानि – डर से; दिशः – सारी दिशाओं में; द्रवन्ति – भाग रहे हैं; सर्वे– सभी; नमस्यन्ति – नमस्कार करते हैं; च – भी; सिद्ध-सङ्घाः – सिद्धपुरुष |

भावार्थ

अर्जुन ने कहा – हे हृषिकेश! आपके नाम के श्रवण से संसार हर्षित होताहै और सभी लोग आपके प्रति अनुरक्त होते हैं | यद्यपि सिद्धपुरुष आपको नमस्कार करतेहैं, किन्तु असुरगण भयभीत हैं और इधर-उधर भाग रहे हैं | यह ठीक ही हुआ है |

श्लोक 11.37

कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन् गरीयसे ब्रह्मणोंSप्यादिकर्त्रे |
अनन्त देवेश जगन्निवास त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत् || ३७ ||

कस्मात् – क्यों; च – भी; ते – आपको; न – नहीं; नमेरन् – नमस्कारकरें; महा-आत्मन् – हे महापुरुष; गरीयसे – श्रेष्ठतर लोग; ब्रह्मणः – ब्रह्मा कीअपेक्षा; अपि – यद्यपि; आदि-कर्त्रे – परम स्त्रष्टा को; अनन्त – हे अनन्त; देव-ईश– हे इशों के ईश; जगत्-निवास – हे जगत के आश्रय; त्वम् – आप हैं; अक्षरम् –अविनाशी; सत्-असत् – कार्य तथा कारण; तत्-परम् – दिव्य; यत् – क्योंकि |

भावार्थ

हे महात्मा! आप ब्रह्मा से भी बढ़कर हैं, आप आदि स्त्रष्टा हैं | तोफिर आपको सादर नमस्कार क्यों न करें? हे अनन्त, हे देवेश, हे जगन्निवास! आप परमस्त्रोत, अक्षर, कारणों के कारण तथा इस भौतिक जगत् के परे हैं |

श्लोक 11.38

त्वमादिदेवः पुरुषः पुराण- स्त्वमस्य विश्र्वस्य परं निधानम् |
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्र्वमनन्तरूप || ३८ ||

त्वम् – आप; आदि-देवः – आदि परमेश्र्वर; पुरुषः – पुरुष; पुराणः –प्राचीन, सनातन; त्वम् – आप; अस्य – इस; विश्र्वस्य – विश्र्व का; परम् – दिव्य;निधानम् – आश्रय; वैत्ता – जानने वाला; असि – हओ; वेद्यम् – जानने योग्य, ज्ञेय; च– तथा; परम् – दिव्य; च – और; धाम – वास, आश्रय; त्वया – आपके द्वारा; ततम् –व्याप्त; विश्र्वम् – विश्र्व; अनन्त-रूप – हे अनन्त रूप वाले |

भावार्थ

आप आदि देव, सनातन पुरुष तथा इस दृश्यजगत के परम आश्रय हैं | आप सबकुछ जानने वाले हैं और आप ही सब कुछ हैं, जो जानने योग्य है | आप भौतिक गुणों सेपरे परम आश्रय हैं | हे अनन्त रूप! यह सम्पूर्ण दृश्यजगत आपसे व्याप्त है |

श्लोक 11.39

वायुर्यमोSग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्र्च |
नमो नमस्तेSस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्र्च भूयोSपि नमो नमस्ते || ३९ ||

वायुः – वायु; यमः – नियन्ता; अग्निः – अग्नि; वरुणः – जल; शश-अङ्कः – चन्द्रमा; प्रजापतिः – ब्रह्मा; त्वम्- आप; प्र-पितामहः – परबाबा; च – तथा; नमः – मेरा नमस्कार; नमः – पुनः नमस्कार; ते – आपको; अस्तु – हो; सहस्त्र-कृत्वः- हजार बार; पुनः-च – तथा फिर; भूयः – फिर; अपि – भी; नमः – नमस्कार; नमः-ते – आपको मेरा नमस्कार है ।

भावार्थ

आप वायु हैं तथा परम नियन्ता हैं । आप अग्नि हैं, जल हैं तथा चन्द्रमा हैं । आप आदि ब्रह्मा हैं और आप प्रपितामह हैं । अतः आपको हजार बार नमस्कार है और पुनः नमस्कार है ।

श्लोक 11.40

नमः पुरस्तादथ पृष्ठस्ते नमोSस्तु ते सर्वत एव सर्व |
अनन्तवीर्यामीतविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोSसि सर्वः || ४० ||

नमः – नमस्कार; पुरस्तात् – सामने से; अथ – भी; पृष्ठतः – पीछे से; ते– आपको; नमः-अस्तु – मैं नमस्कार करता हूँ; ते – आपको; सर्वतः – सभी दिशाओं से; एव– निस्सन्देह; सर्व – क्योंकि आप सब कुछ हैं; अनन्त-वीर्य – असीम पौरुष;अमित-विक्रमः – तथा असीम बल; त्वम् – आप; सर्वम् – सब कुछ; समाप्नोषि – आच्छादितकरते हओ; ततः – अतएव; असि – हो; सर्वः – सब कुछ |

भावार्थ

आपको आगे, पीछे, तथा चारों ओर से नमस्कार है | हे असीम शक्ति! आपअनन्त पराक्रम के स्वामी हैं | आप सर्वव्यापी हैं, अतः आप सब कुछ हैं |

श्लोक 11.41

सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति |
अजानता महिमानं तवेदं मया प्रमादात्प्रणयेन वापि || ४१ ||

सखा – मित्र; इति – इस प्रकार; मत्वा – मानकर; प्रसभम् – हठपूर्वक; यत्– जो भी; उत्तम् – कहा गया; हे कृष्ण – हे कृष्ण; हे यादव – हे यादव; हे सखा – हेमित्र; इति – इस प्रकार; अजानता – बिना जाने; महिमानम् – महिमा को; तव – आपकी;इदम् – यह; मया – मेरे द्वारा; प्रमादात् – मूर्खतावश; प्रणयेन – प्यार वश; वा अपि– या तो;

भावार्थ

आपको अपना मित्र मानते हुए मैंने हठपूर्वक आपको हे कृष्ण, हे यादव, हेसखा जैसे सम्बोधनों से पुकारा है, क्योंकि मैं आपकी महिमा को नहीं जानता था |मैंने मूर्खतावश या प्रेमवश जो कुछ भी किया है, कृपया उसके लिए मुझे क्षमा कर दें|

श्लोक 11.42

यच्चावहासार्थमसत्कृतोSसि विहारशय्यासनभोजनेषु |
एकोSथवाप्यच्युत तत्समक्षं तत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम् || ४२ ||

यत् – जो; च – भी; अह्वास-अर्थम् – हँसी के लिए; असत्-कृतः – अनादर कियागया; असि – हो; विहार – आराम में; शय्या – लेटे रहने पर; आसन – बैठे रहने पर;भोजनेषु – या भोजन करते समय; एकः – अकेले; अथवा – या; अपि – भी; अच्युत – हेअच्युत; तत्-समक्षम् – साथियों के बीच; तत् – उन सभी; क्षामये – क्षमाप्रार्थीहूँ; त्वाम् – आपसे; अहम् – मैं; अप्रमेयम् – अचिन्त्य |

भावार्थ

यही नहीं, मैंने कई बार आराम करते समय, एकसाथ लेटे हुए या साथ-साथ खाते या बैठेहुए, कभी अकेले तो कभी अनेक मित्रों के समक्ष आपका अनादर किया है | हे अच्युत!मेरे इन समस्त अपराधों को क्षमा करें |

श्लोक 11.43

पितासि लोकस्य चराचरस्य त्वमस्य पूज्यश्र्च गुरुर्गरीयान् |
न त्वत्समोSस्त्यभ्यधिकः कुतोSन्यो लोकत्रयेSप्यप्रतिमप्रभाव || ४३ ||

पिता – पिता; असि – हो; लोकस्य – पूरे जगत के; चर – सचल; अचरस्थ – तथा अचलों के; त्वम् – आप हैं ; अस्य – इसके; पूज्यः – पूज्य; च – भी; गुरुः – गुरु; गरीयान् – यशस्वी, महिमामय; न – कभी नहीं; त्वत्-समः – आपके तुल्य; अस्ति – है; अभ्यधिकः – बढ़ कर; कुतः – किस तरह संभव है; अन्यः – दूसरा; लोक-त्रये – तीनों लोकों में; अपि – भी; अप्रतिम-प्रभाव – हे अचिन्त्य शक्ति वाले ।

भावार्थ

आप इस चर तथा अचर सम्पूर्ण दृश्यजगत के जनक हैं । आप परम पूज्य महान आध्यात्मिक गुरु हैं । न तो कोई आपके तुल्य है, न ही कोई आपके समान हो सकता है । हे अतुल शक्ति वाले प्रभु! भला तीनों लोकों में आपसे बढ़कर कोई कैसे हो सकता है?

श्लोक 11.44

तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायं प्रसादये त्वामहमीशमीड्यम् |
पितेव पुत्रस्य सखेव सख्यु: प्रियः प्रिययार्हसि देव सोढुम् || ४४ ||

तस्मात् – अतः; प्रणम्य – प्रणाम् करके; प्रणिधाय – प्रणत करके; कायम् – शरीर को; प्रसादये – कृपा की याचना करता हूँ; त्वाम् – आपसे; अहम् – मैं; ईशम् – भगवान् से; ईड्यम् – पूज्य; पिता इव – पिता तुल्य; सखा इव – मित्रवत्; सख्युः – मित्र का; प्रियः – प्रेमी; प्रियायाः – प्रिया का; अर्हसि – आपको चाहिए; देव – मेरे प्रभु; सोढुम् – सहन करना ।

भावार्थ

आप प्रत्येक जीव द्वारा पूजनीय भगवान् हैं । अतः मैं गीरकर सादर प्रणाम करता हूँ और आपकी कृपा की याचना करता हूँ । जिस प्रकार पिता अपने पुत्र की ढिठाई सहन करता है, या मित्र अपने मित्र की घृष्टता सह लेता है, या प्रिय अपनी प्रिया का अपराध सहन कर लेता है, उसी प्रकार आप कृपा करके मेरी त्रुटियों को सहन कर लें ।

श्लोक 11.45

अदृष्टपूर्वं हृषितोSस्मि दृष्ट्वा भयेन च प्रव्यथितं मनो मे |
तदेव मे दर्शय देव रूपं प्रसीद देवेश जगन्निवास || ४५ ||

अदृष्ट-पूर्वम् – पहले कभी न देखा गया; हृषितः – हर्षित; अस्मि – हूँ;दृष्ट्वा – देखकर; भयेन – भय के कारण; च – भी; प्रव्यथितम् – विचलित, भयभीत; मनः – मन; मे – मेरा; तत् – वह; एव – निश्चय ही; मे – मुझको; दर्शय – दिखलाइये; देव – हे प्रभु; रूपम् – रूप; प्रसीद – प्रसन्न होइये; देव-ईश – ईशों के ईश; जगत्-निवास – हे जगत के आश्रय ।

भावार्थ

पहले कभी न देखे गये आपके विराट रूप का दर्शन करके मैं पुलकित हो रहा हूँ, किन्तु साथ ही मेरा मन भयभीत हो रहा है । अतः आप मुझ पर कृपा करें और हे देवेश, हे जगन्निवास! अपना पुरुषोत्तम भगवत् स्वरूप पुनः दिखाएँ ।

श्लोक 11.46

किरीटिनं गदिनं चक्रहस्त- मिच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव |
तेनैव रूपेण चतुर्भुजेन सहस्रबाहो भव विश्र्वमूर्ते || ४६ ||
किरीटिनम् – मुकुट धारण किये; गदिनम् – गदाधारी; चक्रहस्तम् – चक्रधारण किये; इच्छामि – इच्छुक हूँ; त्वाम् – आपको; द्रष्टुम् – देखना; अहम् – मैं; तथा एव – उसी स्थिति में; तेन-एव – उसी; रूपेण – रूप में; चतुःभुजेन – चार हताहों वाले; सहस्त्र-बाहों – हे हजार भुजाओं वाले; भव – हो जाइये; विश्र्व-मूर्ते – हे विराट रूप |

भावार्थ

हे विराट रूप! हे सहस्त्रभुज भगवान्! मैं आपके मुकुटधारी चतुर्भुज रूप का दर्शन करना चाहता हूँ, जिसमें आप अपने चारों हाथों में शंख, चक्र, गदा तथा पद्म धारण किये हुए हों | मैं उसी रूप को देखने की इच्छा करता हूँ |

श्लोक 11.47

श्रीभगवानुवाच |

मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदं रूपं परं दर्शितमात्मयोगात् |
तेजोमयं विश्र्वमनन्तमाद्यं यन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम् || ४७ ||

श्रीभगवान् उवाच – श्रीभगवान् ने कहा; मया – मेरे द्वारा; प्रसन्नेन – प्रसन्न; तव – तुमको; अर्जुन – हे अर्जुन; इदम् – इस; रूपम् – रूप को; परम् – दिव्य; दर्शितम् – दिखाया गया; आत्म-योगात् – अपनी अन्तरंगा शक्ति से; तेजःमयम् – तेज से पूर्ण; विश्र्वम् – समग्र ब्रह्माण्ड को; अनन्तम् – असीम; आद्याम् – आदि; यत् – जो; मे – मेरा; त्वत् अन्येन – तुम्हारे अतिरिक्त अन्य के द्वारा; न दृष्ट पूर्वम् – किसी ने पहले नहीं देखा |

भावार्थ

भगवान् ने कहा – हे अर्जुन! मैंने प्रसन्न होकर अपनी अन्तरंगा शक्ति के बल पर तुम्हें इस संसार में अपने इस परम विश्र्वरूप का दर्शन कराया है | इसके पूर्ण अन्य किसी ने इस असीम तथा तेजोमय आदि-रूप को कभी नहीं देखा था |

श्लोक 11.48

न वेदयज्ञाध्ययनैर्न दानै- र्न च क्रियाभिर्न तपोभिरुग्रै: |
एवंरूपः शक्य अहं नृलोके द्रष्टुं त्वदन्येन कुरुप्रवीर || ४८ ||

न – कभी नहीं; वेद- यज्ञ – यज्ञ द्वारा; अध्ययनैः – या वेदों के अध्ययन से; न – कभी नहीं; दानैः – दान के द्वारा; न – कभी नहीं; च – भी; क्रियाभिः – पुण्य कर्मों से; न – कभी नहीं; तपोभिः – तपस्या के द्वारा; उग्रैः – कठोर; एवम्-रूपः – इस रूप में; शक्यः – समर्थ; अहम् – मैं; नृ-लोके – इस भौतिक जगत में; द्रष्टुम् – देखे जाने में; त्वत् – तुम्हारे अतिरिक्त; अन्येन – अन्य के द्वारा; कुरु-प्रवीर – कुरु योद्धाओं में श्रेष्ठ |

भावार्थ

हे कुरुश्रेष्ठ! तुमसे पूर्व मेरे इस विश्र्वरूप को किसी ने नहीं देखा, क्योंकि मैं न तो वेदाध्ययन के द्वारा, न यज्ञ, दान, पुण्य या कठिन तपस्या के द्वारा इस रूप में, इस संसार में देखा जा सकता हूँ |

श्लोक 11.49

मा ते व्यथा मा च विमूढ़भावो दृष्ट्वा रूपं घोरमीदृङ्ममेदम् |
व्यपेतभी: प्रीतमनाः पुनस्त्वं तदेव मे रूपमिदं प्रपश्य || ४९ ||

मा – न हो; ते – तुम्हें; व्यथा – पीड़ा, कष्ट; मा – न हो; च – भी; विमूढ-भावः – मोह; दृष्ट्वा – देखकर; रूपम् – रूप को; घोरम् – भयानक; ईदृक् – इस; व्यपेत-भीः – सभी प्रकार के भय से मुक्त; प्रीत-मनाः – प्रसन्न चित्त; पुनः – फिर; त्वम् – तुम; तत् – उस; एव – इस प्रकार; मे – मेरे; रूपम् – रूप को; इदम् – इस; प्रपश्य – देखो |

भावार्थ

तुम मेरे भयानक रूप को देखकर अत्यन्त विचलित एवं मोहित हो गये हो | अब इसे समाप्त करता हूँ | हे मेरे भक्त! तुम समस्त चिन्ताओं से पुनः मुक्त हो जाओ | तुम शान्त चित्त से अब अपना इच्छित रूप देख सकते हो |

श्लोक 11.50

सञ्जय उवाच |

इत्यर्जुनं वासुदेवस्तथोक्त्वा स्वकं रूपं दर्शयामास भूयः |
आश्र्वासयामास च भीतमेनं भूत्वा पुनः सौम्यवपुर्महात्मा || ५० ||

सञ्जयःउवाच – संजय ने कहा; इति – इस प्रकार; अर्जुनम् – अर्जुन को; वासुदेवः – कृष्ण ने; तथा – उस प्रकार से; उक्त्वा – कहकर; स्वकम् – अपना, स्वीय; रूपम् – रूप को; दर्शयाम् आस- दिखलाया; भूयः – फिर; आश्र्वासयाम् आस- धीरज धराया; च – भी; भीतम् – भयभीत; एनम् – उसको; भूत्वा – होकर; पुनः – फिर; सौम्य वपुः – सुन्दर रूप; महा-आत्मा – महापुरुष |

भावार्थ

संजय ने धृतराष्ट्र से कहा – अर्जुन से इस प्रकार कहने के बाद भगवान् कृष्ण ने अपना असली चतुर्भुज रूप प्रकट किया और अन्त में दो भुजाओं वाला रूप प्रदर्शित करके भयभीत अर्जुन को धैर्य बँधाया |

श्लोक 11.51

अर्जुन उवाच |
दृष्ट्वेदं मानुषं रूपं तव सौम्यं जनार्दन |
इदानीमस्मि संवृत्तः सचेताः प्रकृतिं गतः || ५१ ||

अर्जुनःउवाच – अर्जुन ने कहा; दृष्ट्वा – देखकर; इदम् – इस; मानुषम् – मानवी; रूपम् – रूप को; तव – आपके; सौम्यम् – अत्यन्त सुन्दर; जनार्दन – हे शत्रुओं को दण्डित करने वाले; इदानीम् – अब; अस्मि – हूँ; संवृत्तः – स्थिर; स-चेताः – अपनी चेतना में; प्रकृतिम् – अपनी प्रकृति को; गतः – पुनः प्राप्त हूँ |

भावार्थ

जब अर्जुन ने कृष्ण को उनके आदि रूप में देखा तो कहा – हे जनार्दन! आपके इस अतीव सुन्दर मानवी रूप को देखकर मैं अब स्थिरचित्त हूँ और मैंने अपनी प्राकृत अवस्था प्राप्त कर ली है |

श्लोक 11.52

श्रीभगवानुवाच |

सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम |
देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्क्षिणः || ५२ ||
श्रीभगवान् उवाच – श्रीभगवान् ने कहा; सु-दुर्दर्शम् – देख पाने में अत्यन्त कठिन; इदम् – इस; रूपम् – रूप को; दृष्टवान् असि – जैसा तुमने देखा; यत् – जो; मम – मेरे; देवाः – देवता; अपि – भी; अस्य – इस; रूपस्य – रूप का; नित्यम् – शाश्र्वत; दर्शन-काङ्क्षिणः – दर्शनाभिलाषी |

भावार्थ

श्रीभगवान् ने कहा – हे अर्जुन! तुम मेरे जिस रूप को इस समय देख रहे हो, उसे देख पाना अत्यन्त दुष्कर है | यहाँ तक कि देवता भी इस अत्यन्त प्रिय रूप को देखने की ताक में रहते हैं |

श्लोक 11.53

नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया |
शक्य एवंविधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा || ५३ ||

न – कभी नहीं; अहम् – मैं; वेदैः – वेदाध्ययन से; न – कभी नहीं; तपसा – कठिन तपस्या द्वारा; न – कभी नहीं; दानेन – दान से; च – भी; इज्यया – पूजा से; शक्यः – संभव है; एवम् -विधः – इस प्रकार से; द्रष्टुम् – देख पाना; दृष्टवान् – देख रहे; असि – तुम हो; माम् – मुझको; यथा – जिस प्रकार |

भावार्थ

तुम अपने दिव्य नेत्रों से जिस रूप का दर्शन कर रहे हो, उसे न तो वेदाध्ययन से, न कठिन तपस्या से, न दान से, न पूजा से ही जाना जा सकता है | कोई इन साधनों के द्वारा मुझे मेरे रूप में नहीं देख सकता |

श्लोक 11.54

भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोSर्जुन |
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप || ५४ ||

भक्त्या – भक्ति से; तु – लेकिन; अनन्यया – सकामकर्म तथा ज्ञान के रहित; शक्यः – सम्भव; अहम् – मैं; एवम्-विधः – इस प्रकार; अर्जुन – हे अर्जुन; ज्ञातुम् – जानने; द्रष्टुम् – देखने; च – तथा; तत्त्वेन – वास्तव में; प्रवेष्टुम् – प्रवेश करने; च – भी; परन्तप – हे बलिष्ठ भुजाओं वाले |

भावार्थ

हे अर्जुन! केवल अनन्य भक्ति द्वारा मुझे उस रूप में समझा जा सकता है, जिस रूप में मैं तुम्हारे समक्ष खड़ा हूँ और इसी प्रकार मेरा साक्षात् दर्शन भी किया जा सकता है | केवल इसी विधि से तुम मेरे ज्ञान के रहस्य को पा सकते हो |

श्लोक 11.55

मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः |
निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव || ५५ ||


मत्-कर्म-कृत – मेरा कर्म करने में रत; मत्-परमः – मुझको परम मानते हुए; मत्-भक्तः – मेरी भक्ति में रत; सङग-वर्जितः – सकाम कर्म तथा मनोधर्म के कल्मष से मुक्त; निर्वैरः – किसी से शत्रुरहित; सर्व-भूतेषु – समस्त जीवों में; यः – जो; माम् – मुझको; एति – प्राप्त करता है; पाण्डव – हे पाण्डु के पुत्र |

भावार्थ

हे अर्जुन! जो व्यक्ति सकाम कर्मों तथा मनोधर्म के कल्मष से मुक्त होकर, मेरी शुद्ध भक्ति में तत्पर रहता है, जो मेरे लिए ही कर्म करता है, जो मुझे ही जीवन-लक्ष्य समझता है और जो प्रत्येक जीव से मैत्रीभाव रखता है, वह निश्चय ही मुझे प्राप्त करता है |

इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता के ग्यारहवें अध्याय “विराट रूप” का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूरा हुआ |

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