श्रीमद्भागवत गीता – सार | अध्याय 11 : विराट रूप | Shri Bhagwat Geeta Saar – 11 – Hindi – भाग 1

जय श्री राधे कृष्णा ! आज हम श्री भगवतगीता के ग्यारहवे अध्याय – ‘विराट रूप’ पर चर्चा करेंगे। हमारी आशा है आप हर एक शब्द का अर्थ समझ कर चरितार्थ करेंगे व् इस बदलते युग में प्रभु श्री कृष्ण के उपदेशों , उनकी सीख , उनके विचारों और जीवन की सत्यता जो उन्होंने हमें बताई है उसे हम अपने नई पीढ़ी को भी बता कर समझा कर,इस पवित्र सनातन परंपरा को जीवित रखने में अपना योगदान देगें। Shree Bhagwat Geeta Saar – Adhayay 11 – Virat Roop – Hindiभाग 1

श्री भगवतगीता का ग्यारहवा अध्याय – ‘विराट रूप’ | Shree Bhagwat Geeta Saar – Adhayay 11 – Virat Roop – Hindi

श्लोक 11 . 1

अर्जुन उवाच

मदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसंज्ञितम् |
यत्त्वयोक्तं वचस्तेन मोहोSयं विगतो मम || १ ||

अर्जुनःउवाच – अर्जुन ने कहा; मत्-अनुग्रहाय – मुझपर कृपा करने के लिए; परमम् – परम; गुह्यम् – गोपनीय; अध्यात्म – आध्यात्मिक; संज्ञितम् – नाम से जाना जाने वाला, विषयक; यत् – जो; त्वया – आपके द्वारा; उक्तम् – कहे गये; वचः – शब्द; तेन – उससे; मोहः – मोह; अयम् – यह; विगतः – हट गया; मम – मेरा |

भावार्थ

अर्जुन ने कहा – आपने जिन अत्यन्त गुह्य आध्यात्मिक विषयों का मुझे उपदेश दिया है, उसे सुनकर अब मेरा मोह दूर हो गया है |

श्लोक 11 . 2

भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया |
त्वत्तः कमलपत्राक्ष महात्म्यमपि चाव्ययम् || २ ||

भव – उत्पत्ति; अप्ययौ – लय (प्रलय); हि – निश्चय ही; भूतनाम् – समस्त जीवों का; श्रुतौ – सुना गया है ; विस्तरशः – विस्तारपूर्वक; मया – मेरे द्वारा; त्वत्तः – आपसे; कमल-पत्र-अक्ष – हे कमल नयन; माहात्म्यम् – महिमा; अपि – भी; च – तथा; अव्ययम् – अक्षय,अविनाशी ।
भावार्थ

हे कमलनयन! मैंने आपसे प्रत्येक जीव की उत्पत्ति तथा लय के विषय में विस्तार आपकी अक्षय महिमा का अनुभव किया है ।

श्लोक 11 . 3

एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मानं परमेश्र्वर |
दृष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्र्वरं पुरुषोत्तम || ३ ||

एवम् – इस प्रकार;एतत् – यह; यथा- जिस प्रकार; आत्थ- कहा है; त्वम्- आपने; आत्मानम् – अपने आपको;परम-ईश्र्वर – हे परमेश्र्वर; द्रष्टुम् – देखने केलिए; इच्छामि – इच्छा करता हूँ; ते- आपका; रूपम् – रूप; ऐश्र्वरम्- दैवी; पुरुष-उत्तम – हेपुरुषों में उत्तम।

भावार्थ

हे पुरुषोत्तम, हे परमेश्र्वर!यद्यपि आपको मैं अपने समक्ष आपके द्वारा वर्णित आपके वास्तविक रूप में देख रहा हूँ, किन्तु मैं यह देखने का इच्छुक हूँ कि आप इस दृश्य जगत में किस प्रकार प्रविष्ट हुए हैं ।मैं आप के उसी रूप का दर्शन करना चाहता हूँ ।

श्लोक 11 . 4

मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो |
योगेश्र्वर ततो मे त्वं दर्शयात्मानमव्ययम् || ४ ||

मन्यसे- तुम सोचते हो; यदि- यदि; तत् – वह; शक्यम्- समर्थ; मया – मेरे द्वारा;द्रष्टुम् – देखे जाने के लिए; इति- प्रकार;प्रभो – स्वामी; योग-ईश्र्वर- हे योगेश्र्वर; ततः- तब; मे – मुझे;त्वम् – आप; दर्शय- दिखलाइये; आत्मानम् – अपने स्वरूप को; अव्ययम् – शाश्र्वत।

भावार्थ

हे प्रभु! हे योगेश्र्वर!यदि आप सोचतेहैं कि मैं आपके विश्र्वरूप को देखने में समर्थ हो सकता हूँ, तो कृपा करके मुझे अपना असीम विश्र्वरूप दिखलाइये।

श्लोक 11 . 5

श्री भगवानुवाच

पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोSथ सहस्त्रशः |
नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च || ५ ||

श्रीभगवान् उवाच -भगवान् ने कहा; पश्य – देखो; मे – मेरा; पार्थ – पृथा पुत्र; रूपाणि- रूप;शतशः- सैकड़ों;अथ- भी;सहस्त्रशः- हजारों;नाना-विधानि- नाना रूप वाले; दिव्यानि – दिव्य; नाना – नाना प्रकार के; वर्ण – रंग; आकृतीनि – रूप; च – भी ।

भावार्थ

भगवान् ने कहा – अर्जुन, हे पार्थ! अब तुम मेरे ऐश्र्वर्य को, सैकड़ों-हजारों प्रकार के दैवी तथा विविध रंगों वाले रूपों को देखो ।

श्लोक 11 . 6

पश्यादित्यान्वसून्रुद्रानश्र्विनौ मरुतस्तथा |
बहून्यदृष्टपूर्वाणि पश्याश्र्चर्याणि भारत || ६ ||

पश्य – देखो; आदित्यान् – अदिति के बारहों पुत्रों को; वसून्- आठों वसुओं को; रुद्रान् – रूद्र के ग्यारह रूपों को; अश्र्विनौ- दो अश्र्विनी कुमारों को; मरुतः- उञ्चासों मरुतों को; तथा – भी;बहूनि- अनेक;अदृष्ट- देखे हुए; पुर्वाणि – पहले, इसके पूर्व, पश्य -देखो,आश्र्चर्याणि- समस्त आश्चर्यों को; भारत – हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ ।

भावार्थ

हे भारत! लो, तुम आदित्यों, वसुओं, रुद्रों, अश्र्विनीकुमारों तथा अन्य देवताओं के विभिन्न रूपों को यहाँ देखो । तुम ऐसे अनेक आश्चर्यमय रूपों को देखो, जिन्हें पहले किसी ने न तो कभी देखा है, न सुना है ।

श्लोक 11 . 7

इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम् |
मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद्द्रष्टुमिच्छसि || ७ ||

इह – इसमें; एक-स्थम् – एक स्थान में; जगत् – ब्रह्माण्ड; कृत्स्नम् – पूर्णतया; पश्य – देखो; अद्य – तुरन्त; स – सहित; चर – जंगम; अचरम् – तथा अचर, जड़; मम – मेरे; देहे – शरीर में; गुडाकेश – हे अर्जुन; यत् – जो; च – भी; अन्यत् – अन्य, और; द्रष्टुम् – देखना; इच्छसि – चाहते हो ।

भावार्थ

हे अर्जुन! तुम जो भी देखना चाहो, उसेतत्क्षण मेरे इस शरीर में देखो । तुम इस समय तथा भविष्य में भी जो भी देखना चाहते हो, उसको यह विश्र्व रूप दिखाने वाला है । यहाँ एक ही स्थान पर चर-अचर सब कुछ है ।

श्लोक 11 . 8

न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा |
दिव्यं ददामि ते चक्षु: पश्य मे योगमैश्र्वरम् || ८ ||

न – कभी नहीं; तु – लेकिन; माम् – मुझको; शक्यसे – तुम समर्थ होगे; द्रष्टुम् – देखने में; अनेन – इन; एव – निश्चय ही; स्व-चक्षुषा – अपनी आँखों से; दिव्यम् – दिव्य; ददामि – देता हूँ; ते – तुमको; चक्षुः – आँखें; पश्य – देखो; मे – मेरी; योगम् ऐश्र्वरम् – अचिन्त्य योगशक्ति ।

भावार्थ

किन्तु तुम मुझे अपनी इन आँखों से नहीं देख सकते । अतः मैं तुम्हें दिव्य आँखें दे रहा हूँ । अब मेरे योग ऐश्र्वर्य को देखो ।

श्लोक 11 . 9

सञ्जय उवाच

एवमुक्त्वा ततो राजन्महायोगेश्र्वरो हरिः |
दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्र्वरम् || १ ||

सञ्जयःउवाच –संजय ने कहा; एवम् – इस प्रकार; उक्त्वा –कहकर; ततः –तत्पश्चात्; राजन् – हे राजा; महा-योग-ईश्र्वरः – परा शक्तिशाली योगी; हरिः – भगवान् कृष्ण ने; दर्शयाम् आस – दिखलाया; पार्थाय – अर्जुन को; परमम् – दिव्य; रूपम् ऐश्र्वरम् – विश्र्वरूप |

भावार्थ

संजय ने कहा – हे राजा! इस प्रकार कहकर महायोगेश्र्वर भगवान् ने अर्जुन को अपना विश्र्वरूप दिखलाया |

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श्लोक 11 . 10 – 11

अनेकवक्त्रनयनमनेकाअद्भुतदर्शनम् |
अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम् || १० ||

दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम् |
सर्वाश्र्चर्यमयं देवमनन्तं विश्र्वतोमुखम् || ११ ||

अनेक – कई; वक्त्र – मुख; नवनम् – नेत्र; अनेक – अनेक; अद्भुत – विचित्र; दर्शनम् – दिशी; अनेक – अनेक; दिव्य – दिव्य,अलौकिक; आभरणम् – आभूषण; दिव्य – दैवी; अनेक – विविध; उद्यत – उठाये हुए; आयुधम् – हथियार; दिव्य – दिव्य; माल्य – मालाएँ; अम्बर – वस्त्र; धरम् – धारण किये; दिव्य – दिव्य; गन्ध – सुगन्धियाँ; अनुलेपनम् – लगी थीं; सर्व – समस्त; आश्र्चर्य-मयम् – आश्चर्यपूर्ण; देवम् – प्रकाशयुक्त; अनन्तम् – असीम; विश्र्वतः-मुखम् – सर्वव्यापी |

भावार्थ

अर्जुन ने इस विश्र्वरूप में असंख्य मुख, असंख्य नेत्र तथा असंख्य आश्चर्यमय दृश्य देखे | यह रूप अनेक दैवी आभुषणों से अलंकृत था और अनेक दैवी हथियार उठाये हुए था | यह दैवी मालाएँ तथा वस्त्र धारण किये थे और उस पर अनके दिव्य सुगन्धियाँ लगी थीं | सब कुछ आश्चर्यमय, तेजमय, असीम तथा सर्वत्र व्याप्त था |

श्लोक 11 .12

दिवि सूर्यसहस्त्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता |
यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः || १२ ||

दिवि – आकाश में; सूर्य – सूर्य का; सहस्त्रस्य – हजारों; भवेत् – थे; युगपत् – एकसाथ; उत्थिता – उपस्थित; यदि – यदि; भाः – प्रकाश; सदृशी – के समान; सा – वह; स्यात् – हो; भासः – तेज; तस्य – उस; महात्मनः – परम स्वामी का |

भावार्थ

यदि आकाश में हजारों सूर्य एकसाथ उदय हों, तो उनका प्रकाश शायद परमपुरुष के इस विश्र्वरूप के तेज की समता कर सके |

श्लोक 11 .13

तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा |
अपश्यद्देवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा || १३ ||

तत्र – वहाँ; एक-स्थम् – एकत्र, एक स्थान में; जगत् – ब्रह्माण्ड;कृत्स्नम् – सम्पूर्ण; प्रविभक्तम् – विभाजित; अनेकधा – अनेक में; अपश्यत् – देखा;देव-देवस्य – भगवान् के; शरीरे – विश्र्वरूप में; पाण्डवः – अर्जुन ने; तदा – तब |

भावार्थ

उस समय अर्जुन भगवान् के विश्र्वरूप में एक ही स्थान पर स्थित हजारोंभागों में विभक्त ब्रह्माण्ड के अनन्त अंशों को देख सका |

श्लोक 11 .14

ततः स विस्मयाविष्टो हृष्टरोमा धनञ्जयः |
प्रणम्य शिरसा देवं कृताञ्जलिरभाषत || १४ ||

ततः – तत्पश्चात्; सः – वह; विस्मय-आविष्टः – आश्चर्यचकित होकर; हृष्ट-रोमा – हर्ष से रोमांचित; धनञ्जयः – अर्जुन; प्रणम्य – प्रणाम करके; शिरसा – शिर के बल; देवम् – भगवान् को; कृत-अञ्जलिः – हाथ जोड़कर; अभाषत – कहने लगा |

भावार्थ

तब मोहग्रस्त एवं आश्चर्यचकित रोमांचित हुए अर्जुन ने प्रणाम करने के लिए मस्तक झुकाया और वह हाथ जोड़कर भगवान् से प्रार्थना करने लगा |

श्लोक 11 .15

अर्जुन उवाच

पश्यामि देवांस्तव देव देहे सर्वांस्तथा भूतविशेषसङ्घान् |
ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थ-मृषींश्र्च सर्वानुरगांश्र्च दिव्यान् || १५ ||

अर्जुनः उवाच – अर्जुन ने कहा; पश्यामि – देखता हूँ; देवान् – समस्त देवताओं को; तव – आपके; देव- हे प्रभु; देहे – शरीर में; सर्वान् – समस्त; तथा – भी; भूत – जिव; विशेष-सङघान् – विशेष रूप से एकत्रित; ब्रह्माणम् – ब्रह्मा को; ईशम् – शिव को; कमल-आसन-स्थम् – कमल के ऊपर आसीन; ऋषीन् – ऋषियों को; च – भी; सर्वान् – समस्त; उरगान् – सर्पों को; च – भी; दिव्यान् – दिव्य |

भावार्थ

अर्जुन ने कहा – हे भगवान् कृष्ण! मैं आपके शरीर में सारे देवताओं तथा अन्य विविध जीवों को एकत्र देख रहा हूँ | मैं कमल पर आसीन ब्रह्मा, शिवजी तथा समस्त ऋषियों एवं दिव्य सर्पों को देख रहा हूँ |

श्लोक 11 .16

अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रं पश्यामि त्वां सर्वतोSनन्तरूपम् |
नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिं पश्यामि विश्र्वेश्र्वर विश्र्वरूप || १६ ||

अनेक – कई; बाहु – भुजाएँ; उदार – पेट; वक्त्र – मुख; नेत्रम् –आँखें; पश्यामि – देख रहा हूँ; त्वाम् – आपको; सर्वतः – चारों ओर; अनन्त-रूपम् – असंख्य रूप; न अन्तम् – अन्तहीन, कोई अन्त नहीं है; न मध्यम् – मध्य रहित; न पुनः – न फिर; तव – आपका; आदिम् – प्रारम्भ; पश्यामि – देखता हूँ; विश्र्व-ईश्र्वर – हे ब्रह्माण्ड के स्वामी; विश्र्वरूप – ब्रह्माण्ड के रूप में |

भावार्थ

हे विश्र्वेश्र्वर, हे विश्र्वरूप! मैं आपके शरीर में अनेकानेक हाथ, पेट, मुँह तथा आँखें देख रहा हूँ, जो सर्वत्र फैले हैं और जिनका अन्त नहीं है | आपमें न अन्त दीखता है, न मध्य और न आदि |

श्लोक 11 .17

किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च तेजोराशिं सर्वतो दीप्तिमन्तम् |
पश्यामि त्वां दुर्निरीक्ष्यं समन्ता-द्दीप्तानलार्कद्युतिमप्रमेयम् || १७ ||

किरीटिनम् – मुकुट युक्त; गदिनम् – गदा धारण किये; चक्रिणम् – चक्र समेत; च – तथा; तेजःराशिम् – तेज; सर्वतः – चारों ओर; दीप्ति-मन्तम् – प्रकाश युक्त; पश्यामि – देखता हूँ; त्वाम् – आपको; दुर्निरीक्ष्यम् – देखने में कठिन; समन्तात् – सर्वत्र; दीप्त-अनल – प्रज्जवलित अग्नि; अर्क – सूर्य की; द्युतिम् – धूप; अप्रमेयम् – अनन्त |

भावार्थ

आपके रूप को उसके चकाचौंध के कारण देख पाना कठिन है, क्योंकि वह प्रज्जवलित अग्नि कि भाँति अथवा सूर्य के अपार प्रकाश की भाँति चारों ओर फैल रहा है | तो भी मैं इस तेजोमय रूप को सर्वत्र देख रहा हूँ, जो अनेक मुकुटों, गदाओं तथा चक्रों से विभूषित है |

श्लोक 11 .18

त्वमक्षरं परमं वेदितव्यं त्वमस्य विश्र्वस्य परं निधानम् |
त्वमव्ययः शाश्र्वतधर्मगोप्ता सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे || १८ ||

त्वम् – आप; अक्षरम् – अच्युत; परमम् – परम; वेदितव्यम् – जानने योग्य; त्वम् – आप; अस्य – इस; विश्र्वस्य – विश्र्व के; परम् – परम; निधानम् – आधार; त्वम् – आप; अव्ययः – अविनाशी; शाश्र्वत-धर्म-गोप्ता – शाश्र्वत धर्म के पालक; सनातनः – शाश्र्वत; त्वम् – आप; पुरुषः – परमपुरुष; मतः मे – मेरा मत है |

भावार्थ

आप परम आद्य ज्ञेय वास्तु हैं | आप इस ब्रह्माण्ड के परम आधार (आश्रय) हैं | आप अव्यय तथा पुराण पुरुष हैं | आप सनातन धर्म के पालक भगवान् हैं | यही मेरा मत है |

श्लोक 11 .19

अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्य-मनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम् |
पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रं स्वतेजसा विश्र्वमिदं तपन्तम् || १९ ||

अनादि – आदिरहित; मध्य – मध्य; अन्तम् – या अन्त; अनन्त – असीम;वीर्यम् – महिमा; अनन्त – असंख्य; बाहुम् – भुजाएँ; शशि – चन्द्रमा; सूर्य – तथासूर्य; नेत्रम् – आँखें; पश्यामि – देखता हूँ; त्वाम् – आपको; दीप्त – प्रज्जवलित;हुताश-वक्त्रम् – आपके मुख से निकलती अग्नि को; स्व-तेजसा – अपने तेज से;विश्र्वम् – विश्र्व को; इदम् – इस; तपन्तम् – तपाते हुए |

भावार्थ

आप आदि, मध्य तथा अन्त से रहित हैं | आपका यश अनन्त है | आपकी असंख्यभुजाएँ हैं और सूर्य चन्द्रमा आपकी आँखें हैं | मैं आपके मुख से प्रज्जवलित अग्निनिकलते और आपके तेज से इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को जलाते हुए देख रहा हूँ |

श्लोक 11 .20

द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि व्याप्तं त्वयैकेन दिशश्र्च सर्वाः |
दृष्ट्वाद्भुतं रूपमुग्रं तवेदं लोकत्रयं प्रव्यथितं महात्मन् || २० ||

द्यौ – बाह्य आकाश से लेकर; आ-पृथिव्योः – पृथ्वी तक; इदम् – इस; अन्तरम् – मध्य में; हि – निश्चय ही; व्याप्तम् – व्याप्त; त्वया – आपके द्वारा; एकेन – अकेला; दिशः – दिशाएँ; च – तथा; सर्वाः – सभी; दृष्ट्वा – देखकर; अद्भुतम् – अद्भुत; रूपम् – रूप को; उग्रम् – भयानक; तव – आपके; इदम् – इस; लोक – लोक; त्रयम् – तीन; प्रव्यथितम् – भयभीत, विचलित; महा-आत्मन् – हे महापुरुष |

भावार्थ

यद्यपि आप एक हैं, किन्तु आप आकाश तथा सारे लोकों एवं उनके बीच के समस्त अवकाश में व्याप्त हैं | हे महापुरुष! आपके इस अद्भुत तथा भयानक रूप को देखके सारे लोक भयभीत हैं |

श्लोक 11 .21

अमी हि त्वां सुरसङ्घा विशन्ति केचिद्भीताः प्राञ्जलयो गृणन्ति |
स्वस्तीत्युक्त्वा महर्षिसिद्धसङ्घाः स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभिः पुष्कलाभिः || २१ ||

अमी – वे सब; हि – निश्चय ही; त्वाम् – आपको; सुर-सङघाः – देव समूह;विशन्ति – प्रवेश कर रहे हैं; केचित् – उनमें से कुछ; भीताः – भयवश; प्राञ्जलयः –हाथ जोड़े; गृणन्ति – स्तुति कर रहे हैं; स्वस्ति – कल्याण हो; इति – इस प्रकार;महा-ऋषि – महर्षिगण; सिद्ध-सङ्घाः – सिद्ध लोग; स्तुवन्ति – स्तुति कर रहे हैं;त्वाम् – आपकी; स्तुतिभिः – प्रार्थनाओं से; पुष्कलाभिः – वैदिक स्तोत्रों से |

भावार्थ

देवों का सारा समूह आपकी शरण ले रहा है और आपमें प्रवेश कर रहा है |उनमें से कुछ अत्यन्त भयभीत होकर हाथ जोड़े आपकी प्रार्थना कर रहें हैं | महर्षियोंतथा सिद्धों के समूह “कल्याण हो” कहकर वैदिक स्तोत्रों का पाठ करते हुए आपकीस्तुति कर रहे हैं |

श्लोक 11 .22

रुद्रादित्या वसवो ये च साध्या विश्र्वSश्र्विनौ मरुतश्र्चोष्मपाश्र्च |
गन्धर्वयक्षासुरसिद्धसङ्घा वीक्षन्ते त्वां विस्मिताश्र्चैव सर्वे || २२ |

रूद्र – शिव का रूप; आदित्याः – आदित्यगण; वसवः – सारेवासु; ये – जो; च – तथा; साध्याः – साध्य; विश्र्वे – विश्र्वेदेवता; अश्र्विनौ –अश्र्विनीकुमार; मरुतः – मरुद्गण; च – तथा; उष्ण-पाः – पितर; च – तथा; गन्धर्व –गन्धर्व; यक्ष – यक्ष; असुर – असुर; सिद्ध – तथा सिद्ध देवताओं के; सङ्घाः – समूह;वीक्षन्ते – देख रहे हैं; त्वाम् – आपको; विस्मिताः – आश्चर्यचकित होकर; च – भी;एव – निश्चय ही; सर्वे – सब |

भावार्थ

शिव के विविध रूप, आदित्यगण, वासु, साध्य, विश्र्वेदेव, दोनों अश्र्विनीकुमार, मरुद्गण, पितृगण, गन्धर्व, यक्ष, असुर तथा सिद्धदेव सभी आपकोआश्चर्यपूर्वक देख रहे हैं |

श्लोक 11 .23

रूपं महत्ते बहुवक्त्रनेत्रं महाबाहो बहुबाहूरूपादम् |
बहूदरं बहुदंष्ट्राकरालं दृष्ट्वा लोकाः प्रव्यथितास्तथाहम् || २३ ||

रूपम् – रूप; महत् – विशाल; ते – आपका; बहु – अनेक; वक्त्र – मुख; नेत्रम् – तथा आँखें; महा-बाहों – हे बलिष्ट भुजाओं वाले; बहु – अनेक; बाहु – भुजाएँ; उरु – जाँघें; पादम् – तथा पाँव; बहु-उदरम् – अनेक पेट; बहु-दंष्ट्रा – अनेक दाँत; करालम् – भयानक ; दृष्ट्वा – देखकर; लोकाः – सारे लोक; प्रव्यथिताः – विचलित; तथा – उसी प्रकार; अहम् – मैं |

भावार्थ

हे महाबाहु! आपके इस अनेक मुख, नेत्र, बाहु,जांघ, पाँव, पेट तथा भयानक दाँतों वाले विराट रूप को देखकर देवतागण सहित सभी लोक अत्यन्तविचलित हैं और उन्हीं कि तरह मैं भी हूँ |

श्लोक 11 .24

नभःस्पृशं दीप्तमनेकवर्णं व्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रम् |
दृष्ट्वा हि त्वां प्रव्यथितान्तरात्मा धृतिं न विन्दामि शमं च विष्णो || २४ ||

नभः-स्पृशम् – आकाश छूता हुआ; दीप्तम् – ज्योर्तिमय; अनेक – कई; वर्णम् – रंग; व्याक्त – खुले हुए; आननम् – मुख; दीप्त – प्रदीप्त; विशाल – बड़ी-बड़ी; नेत्रम् – आँखें; दृष्ट्वा – देखकर; हि – निश्चय ही; त्वाम् – आपको; प्रव्यथितः – विचलित, भयभीत; अन्तः – भीतर; आत्मा – आत्मा; धृतिम् – दृढ़ता या धैर्य को; न – नहीं; विन्दामि – प्राप्त हूँ; शमम् – मानसिक शान्ति को; च – भी; विष्णो – हे विष्णु |

भावार्थ

हे सर्वव्यापी विष्णु!नाना ज्योर्तिमय रंगोंसे युक्त आपको आकाश का स्पर्श करते, मुख फैलाये तथा बड़ी-बड़ी चमकती आँखें निकालेदेखकर भय से मेरा मन विचलित है | मैं न तो धैर्य धारण कर पा रहा हूँ, ण मानसिकसंतुलन ही पा रहा हूँ |

श्लोक 11 .25

दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानि दृष्ट्वैव कालानलसन्निभानि |
दिशो न जाने न लभे च शर्म प्रसीद देवेश जगन्निवास || २५ ||

दंष्ट्रा – दाँत; करालानि – विकराल; च – भी; ते – आपके; मुखानि – मुखों को; दृष्ट्वा – देखकर; एव – इस प्रकार; काल-अनल – प्रलय की; सन्नि-भानि – मानो; दिशः – दिशाएँ; न – नहीं; जाने – जानता हूँ; न – नहीं; लभे – प्राप्त करता हूँ; च – तथा; शर्म – आनन्द; प्रसीद – प्रसन्न हों; देव-ईश – हे देवताओं के स्वामी; जगत्-निवास – हे समस्त जगतों के आश्रय |

भावार्थ

हे देवेश! हे जगन्निवास! आप मुझ पर प्रसन्नहों ! मैं इस प्रकार से आपके प्रल्याग्नि स्वरूप मुखों को तथा विकराल दाँतों कोदेखकर अपना सन्तुलन नहीं रख पा रहा | मैं सब ओर से मोहग्रस्त हो रहा हूँ |

श्लोक 11 .26 – 27

अमी च त्वां धृतराष्ट्रस्य पुत्राः सर्वे सहैवावनिपालसङ्घै |
भीष्मो द्रोणः सूतपुत्रस्तथासौ सहास्मदियैरपि योधमुख्यै: || २६ ||

वक्त्राणि ते त्वरमाणा विशन्ति दंष्ट्राकरालानि भयानकानि |
केचिद्विलग्ना दशनान्तरेषु सन्दृश्यन्ते चूर्णितैरूत्तमाङ्गै: || २७ ||

अमी – ये; च – भी; त्वाम् – आपको; धृतराष्ट्रस्य – धृतराष्ट्र के;पुत्राः – पुत्र; सर्वे – सभी; सह – सहित; एव – निस्सन्देह; अवनि-पाल – वीर राजाओंके; सङ्घै – समूह; भीष्मः – भीष्मदेव; द्रोणः – द्रोणाचार्य; सूत-पुत्रः – कर्ण;तथा – भी; असौ – यह; सह – साथ; अस्मदीयैः – हमारे; अपि – भी; योध-मुख्यैः – मुख्ययोद्धा; वक्त्राणि – मुखों में; ते – आपके; त्वरमाणाः – तेजीसे; विशन्ति – प्रवेश कर रहे हैं; दंष्ट्रा – दाँत; करालानि – विकराल; भयानकानि –भयानक; केचित् – उनमें से कुछ; विलाग्नाः – लगे रहकर; दशन-अन्तरेषु – दाँतों केबीच में; सन्दृश्यन्ते – दिख रहे हैं; चूर्णितैः – चूर्ण हुए; उत्तम-अङगैः – शिरोंसे |

भावार्थ

धृतराष्ट्र के सारे पुत्र अपने समस्त सहायकराओं सहित तथा भीष्म, द्रोण, कर्ण एवं हमारे प्रमुख योद्धा भी आपके विकराल मुखमें प्रवेश कर रहे हैं | उनमें से कुछ के शिरों को तो मैं आपके दाँतों के बीचचूर्णित हुआ देख रहा हूँ |

श्लोक 11 .28

यथा नदीनां बहवोSम्बुवेगाः समुद्रमेवाभिमुखा द्रवन्ति |
तथा तवामी नरलोकवीरा विशन्ति वक्त्राण्यभिविज्वलन्ति || २८ ||

यथा – जिस प्रकार; नदीनाम् – नदियों की; बहवः – अनेक; अम्बु-वेगाः –जल की तरंगें; समुद्रम् – समुद्र; एव – निश्चय ही; अभिमुखाः – की ओर; द्रवन्ति –दौड़ती हैं; तथा – उसी प्रकार से; तव – आपके; अभी – ये सब; नर-लोक-वीराः – मानवसमाज के राजा; विशन्ति – प्रवेश कर रहे हैं; वक्त्राणि – मुखों में; अभिविज्वलन्ति– प्रज्जवलित हो रहे हैं |

भावार्थ

जिस प्रकार नदियों की अनेक तरंगें समुद्र में प्रवेश करती हैं, उसीप्रकार ये समस्त महान योद्धा भी आपके प्रज्जवलित मुखों में प्रवेश कर रहे हैं |

श्लोक 11 .29

यथा प्रदीप्तं ज्वलनं पतङ्गा विशन्ति नाशाय समृद्धवेगाः |
तथैव नाशाय विशन्ति लोका-स्तवापि वक्त्राणि समृद्धवेगाः || २९ ||

यथा – जिस प्रकार; प्रदीप्तम् – जलती हुई; ज्वलनम् – अग्नि में; पतङगाः – पतिंगे, कीड़े मकोड़े; विशन्ति – प्रवेश करते हैं; नाशाय – विनाश के लिए; समृद्ध – पूर्ण; वेगाः – वेग; तथा एव – उसी प्रकार से; नाशाय – विनाश के लिए; विशन्ति – प्रवेश कर रहे हैं; लोकाः – सारे लोग; एव – आपके; अपि – भी; वक्त्राणि – मुखों में; समृद्ध-वेगाः – पुरे वेग से |

भावार्थ

मैं समस्त लोगों को पूर्ण वेग से आपके मुख में उसी प्रकार प्रविष्टहोते देख रहा हूँ, जिस प्रकार पतिंगे अपने विनाश के लिए प्रज्जवलित अग्नि में कूदपड़ते हैं |

श्लोक 11.30

लेलिह्यसे ग्रसमानः समन्ता- ल्लोकान्समग्रान्वदनैर्ज्वलद्भिः |तेजोभिरापूर्य जगत्समग्रं भासस्तवोग्राः प्रतपन्ति विष्णो || ३० ||

लेलिह्यसे – चाट रहे हैं; ग्रसमानः – निगलते हुए; समन्तात् – समस्त दिशाओं से; लोकान् – लोगों को; समग्रान् – सभी; वदनैः – मुखों से; ज्वलब्धिः – जलते हुए; तेजोभिः – तेज से; आपूर्य – आच्छादित करके; जगत् – ब्रह्माण्ड को; समग्रम् – समस्त; भासः – किरणें; तव – आपकी; उग्राः – भयंकर; प्रतपन्ति – झुलसा रही हैं; विष्णो – हे विश्र्वव्यापी भगवान् |

भावार्थ

हे विष्णु! मैं देखता हूँ कि आप अपने प्रज्जवलित मुखों से सभी दिशाओं के लोगों को निगल रहे हैं | आप सारे ब्रह्माण्ड को अपने तेज से आपूरित करके अपनी विकराल झुलसाती किरणों सहित प्रकट हो रहे हैं |

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