श्रीमद्भागवत गीता – सार | अध्याय 13 : प्रकृति, पुरुष और चेतना | Shree Bhagwat Geeta Saar -13 – भाग 2 Hindi

जय श्री राधे कृष्णा ! आज हम श्री भगवतगीता के तेरहवे अध्याय – प्रकृति, पुरुष तथा चेतना पर चर्चा करेंगे। हमारी आशा है आप हर एक शब्द का अर्थ समझ कर चरितार्थ करेंगे व् इस बदलते युग में प्रभु श्री कृष्ण के उपदेशों , उनकी सीख , उनके विचारों और जीवन की सत्यता जो उन्होंने हमें बताई है उसे हम अपने नई पीढ़ी को भी बता कर समझा कर,इस पवित्र सनातन परंपरा को जीवित रखने में अपना योगदान देगें। Shree Bhagwat Geeta Saar – Adhayay 13 – Prakrati Purush aur Chetna – भाग 2 Hindi

श्लोक 13.21


कार्यकारणकर्तृत्वे हेतु: प्रकृतिरुच्यते |
पुरुषः सुखदु:खानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते || २१ ||

कार्य – कार्य; कारण – तथा कारण का; कर्तृत्वे – सृजन के मामले में; हेतुः – कारण; प्रकृतिः – प्रकृति; उच्यते – कही जाती है; पुरुषः – जीवात्मा; सुख – सुख; दुःखानाम् – तथा दुख का; भोक्तृत्वे – भोग में; हेतुः – कारण; उच्यते – कहा जाता है |

भावार्थ

प्रकृति समस्त भौतिक कारणों तथा कार्यों (परिणामों) की हेतु कही जाती है, और जीव (पुरुष) इस संसार में विविध सुख-दुख के भोग का कारण कहा जाता है |

श्लोक 13.22

पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान् |
कारणं गुणसङ्गोSस्य सदसद्योनिजन्मसु || २२ ||

पुरुषः – जीव; प्रकृतिस्थः – भौतिक शक्ति में स्थित होकर; हि – निश्चय ही; भुङ्क्ते – भोगता है; प्रकृति-जान् – प्रकृति से उत्पन्न; गुणान् – गुणों को; कारणम् – कारण; गुण-सङ्गः – प्रकृति के गुणों की संगति; अस्य – जीव की; सत्-असत् – अच्छी तथा बुरी; योनि – जीवन की योनियाँ; जन्मसु – जन्मों में |


भावार्थ

इस प्रकार जीव प्रकृति के तीनों गुणों का भोग करता हुआ प्रकृति में ही जीवन बिताता है | यह उस प्रकृति के साथ उसकी संगति के कारण है | इस तरह उसे उत्तम तथा अधम योनियाँ मिलती रहती हैं।

श्लोक 13.23

उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्र्वरः |
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेSस्मिन्पुरुषः परः || २३ ||

उपद्रष्टा – साक्षी; अनुमन्ता – अनुमति देने वाला; च – भी; भर्ता – स्वामी; भोक्ता – परम भोक्ता; महा-ईश्र्वरः – परमेश्र्वर; परम्-आत्मा – परमात्मा; इति – भी; अपि – निस्सन्देह; उक्तः – कहा गया है; देहे – शरीर में; अस्मिन् – इस; पुरुषः – भोक्ता; परः – दिव्य ।

भावार्थ

तो भी इस शरीर में एक दिव्य भोक्ता है, जो ईश्र्वर है, परम स्वामी है और साक्षी तथा अनुमति देने वाले के रूप में विद्यमान है और जो परमात्मा कहलाता है ।

श्लोक 13.24

य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणै: सह |
सर्वथा वर्तमानोSपि न स भूयोSभिजायते || २४ ||

यः – जो; एवम् – इस प्रकार; वेत्ति – जानता है; पुरुषम् – जीव को; प्रकृतिम् – प्रकृति को; च – तथा; गुणैः – प्रकृति के गुणों के; सह – साथ; सर्वथा – सभी तरह से ; सह – साथ; सर्वथा – सभी तरह से; वर्तमानः – स्थित होकर; अपि – के बावजूद; न – कभी नहीं; सः – वह; भूयः – फिर से; अभिजायते – जन्म लेता है ।

भावार्थ

जो व्यक्ति प्रकृति, जीव तथा प्रकृति के गुणों की अन्तःक्रिया से सम्बन्धित इस विचारधारा को समझ लेता है, उसे मुक्ति की प्राप्ति सुनिश्चित है । उसकी वर्तमान स्थिति चाहे जैसी हो, यहाँ पर उसका पुनर्जन्म नहीं होगा ।

Shri Radha Govind Dev at Noida India
Shri Radha Govind Dev at Noida, India

श्लोक 13.25

ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना |
अन्ये सांख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे || २५ ||

ध्यायेन – ध्यान द्वारा; आत्मनि – अपने भीतर; पश्यन्ति – देखते हैं; केचित् – कुछ लोग; आत्मानम् – परमात्मा को;आत्मना – मन से; अन्ये – अन्य लोग; साङ्ख्येन – दार्शनिक विवेचना द्वारा; योगेन – योग पद्धति द्वारा; कर्म-योगेन – निष्काम कर्म के द्वारा; च – भी; अपरे – अन्य ।

भावार्थ

कुछ लोग परमात्मा को ध्यान के द्वारा अपने भीतर देखते हैं, तो दूसरे लोग ज्ञान के अनुशीलन द्वारा और कुछ ऐसे हैं जो निष्काम कर्मयोग द्वारा देखते हैं ।

श्लोक 13.26

अन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वान्येभ्य उपासते |
तेSपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणाः || २६ ||

अन्ये – अन्य ;तु – लेकिन; एवम् – इस प्रकार; अजानन्तः – आध्यात्मिक ज्ञान से रहित; श्रुत्वा – सुनकर; अन्येभ्यः – अन्यों से; उपासते – पूजा करना प्रारम्भ कर देते हैं; ते – वे; अपि – भी; च – तथा; अतितरन्ति – पार कर जाते हैं; एव – निश्चय ही; मृत्युम् – मृत्यु का मार्ग; श्रुति-परायणाः – श्रवण विधि के प्रति रूचि रखने वाले ।

भावार्थ

ऐसे भी लोग हैं जो यद्यपि आध्यात्मिक ज्ञान से अवगत नहीं होते पर अन्यों से परम पुरुष के विषय में सुनकर उनकी पूजा करने लगते हैं । ये लोग भी प्रामाणिक पुरुषों श्रवण करने की मनोवृत्ति होने के कारण जन्म तथा मृत्यु पथ को पार कर जाते हैं ।

श्लोक 13.27

यावत्सञ्जायते किञ्चित्सत्त्वं स्थावरजङ्गमम् |
क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ || २७ ||

यावत् – जो भी ; सञ्जायते – उत्पन्न होता है; किञ्चित् – कुछ भी; सत्त्वम् – अस्तित्व; स्थावर – अचर; जङगमम् – चर; क्षेत्र – शरीर का; क्षेत्र-ज्ञ – शरीर ; संयोगात् – संयोग (जुड़ने) से; तत् -विद्धि – तुम उसे जानो; भरत-ऋषभ – हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ ।

भावार्थ

हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ! यह जान लो कि चर तथा अचर जो भी तुम्हें अस्तित्व में दीख रहा है, वह कर्मक्षेत्र तथा क्षेत्र के ज्ञाता का संयोग मात्र है।

श्लोक 13.28

समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्र्वम् |
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति || २८ ||

समम् – समभाव से; सर्वेषु – समस्त; भूतेषु – जीवों में; तिष्ठन्तम् – वास करते हुए; परम-ईश्र्वरम् – परमात्मा को; विनश्यत्सु – नाशवान; अविनश्यन्तम् – नाशरहित; यः – जो; पश्यति – देखता है; सः – वही; पश्यति – वास्तव में देखता है |

भावार्थ

जो परमात्मा को समस्त शरीरों में आत्मा के साथ देखता है और जो यह समझता है कि इस नश्वर शरीर के भीतर न तो आत्मा, न ही परमात्मा कभी भी विनष्ट होता है, वही वास्तव में देखता है |

श्लोक 13.29

समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमिश्र्वरम् |
न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम् || २९ ||

समम् – समान रूप से; पश्यन् – देखते हुए; हि – निश्चय ही; सर्वत्र – सभी जगह; समवस्थितम् – समान रूप से स्थित; ईश्र्वरम् – परमात्मा को; न – नहीं; हिनस्ति – नीचे गिराता है; आत्मना – मन से; आत्मानम् – आत्मा को; ततः – तब; याति – पहुँचता है; पराम् – दिव्य; गतिम् – गन्तव्य को |

भावार्थ

जो व्यक्ति परमात्मा को सर्वत्र तथा प्रत्येक जीव में समान रूप से वर्तमान देखता है, वह अपने मन के द्वारा अपने आपको भ्रष्ट नहीं करता | इस प्रकार वह दिव्य गन्तव्य को प्राप्त करता है |

श्लोक 13.30

प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः |
यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति || ३० ||

प्रकृत्या – प्रकृति द्वारा; एव – निश्चय ही; च – भी; कर्माणि – कार्य; क्रियामाणानि – सम्पन्न किये गये; सर्वशः – सभी प्रकार से; यः – जो; पश्यति – देखता है; तथा – भी; आत्मानम् – अपने आपको; अकर्तारम् – अकर्ता; सः – वह; पश्यति – अच्छी तरह देखता है |

भावार्थ

जो यह देखता है कि सारे कार्य शरीर द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं, जिसकी उत्पत्ति प्रकृति से हुई है, और जो देखता है कि आत्मा कुछ भी नहीं करता, वही यथार्थ में देखता है |

Shri Radha Radhanath at Durban, South Africa 2
Shri Radha Radhanath at Durban, South Africa

श्लोक 13.31

यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति |
तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा || ३१ ||

यदा – जब; भूत – जीव के; पृथक्-भावम् – पृथक् स्वरूपों को; एक-स्थम् – एक स्थान पर; अनुपश्यति – किसी अधिकारी के माध्यम से देखने का प्रयास करता है; ततःएव – तत्पश्चात् ; च – भी; विस्तारम् – विस्तार को; ब्रह्म-परब्रह्म; सम्पद्यते – प्राप्त करता है; तदा – उस समय |

भावार्थ

जब विवेकवान् व्यक्ति विभिन्न भौतिक शरीरों के कारण विभिन्न स्वरूपों को देखना बन्द कर देता है, और यह देखता है कि किस प्रकार जीव सर्वत्र फैले हुए हैं, तो वह ब्रह्म-बोध को प्राप्त होता है |

श्लोक 13.32

अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः |
शरीरस्थोSपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते || ३२ ||

अनादित्वात् – नित्यता के कारण; निर्गुणत्वात् – दिव्य होने से; परम – भौतिक प्रकृति से परे; आत्मा – आत्मा; अयम् – यह; अव्ययः – अविनाशी; शरीर-स्थः – शरीर में वास करने वाला; अपि – यद्यपि; कौन्तेय – हे कुन्तीपुत्र; न करोति – कुछ नहीं करता; न लिप्यते – न ही लिप्त होता है |

भावार्थ

शाश्र्वत दृष्टिसम्पन्न लोग यह देख सकते हैं कि अविनाशी आत्मा दिव्य, शाश्र्वत तथा गुणों अतीत है | हे अर्जुन! भौतिक शरीर के साथ सम्पर्क होते हुए भी आत्मा न तो कुछ करता है और न लिप्त होता है |

श्लोक 13.33

यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते |
सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते ||३३||

यथा – जिस प्रकार; सर्व-गतम् – सर्वव्यापी; सौक्ष्म्यात् – सूक्ष्म होने के कारण; आकाशम् – आकाश; न – कभी नहीं; उपलिप्यते – लिप्त होता है; सर्वत्र – सभी जगह; अवस्थितः – स्थित; देहे – शरीर में; तथा – उसी प्रकार; आत्मा – आत्मा,स्व; न – कभी नहीं; उपलिप्यते – लिप्त होता है |

भावार्थ

यद्यपि आकाश सर्वव्यापी है, किन्तु अपनी सूक्ष्म प्रकृति के कारण, किसी वस्तु से लिप्त नहीं होता | इसी तरह ब्रह्मदृष्टि में स्थित आत्मा, शरीर में स्थित रहते हुए भी, शरीर से लिप्त नहीं होता |

श्लोक 13.34

यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः |
क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत || ३४ ||

यथा – जिस तरह; प्रकाशयति – प्रकाशित करता है; एकः – एक; कृत्स्नम् – सम्पूर्ण; लोकम् – ब्रह्माण्ड को; इमम् – इस; रविः – सूर्य; क्षेत्रम् – इस शरीर को; क्षेत्री – आत्मा; तथा – उसी तरह; कृत्स्नम् – समस्त; प्रकाशयति – प्रकाशित करता है; भारत – हे भरतपुत्र |

भावार्थ

हे भरतपुत्र! जिस प्रकार सूर्य अकेले इस सारे ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार शरीर के भीतर स्थित एक आत्मा सारे शरीर को चेतना से प्रकाशित करता है |

श्लोक 13.35

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