जय श्री राधे कृष्णा ! आज हम श्री भगवतगीता के चौदहवे अध्याय – ‘प्रकृति के तीन गुण ‘ पर चर्चा करेंगे। हमारी आशा है आप हर एक शब्द का अर्थ समझ कर चरितार्थ करेंगे व् इस बदलते युग में प्रभु श्री कृष्ण के उपदेशों , उनकी सीख , उनके विचारों और जीवन की सत्यता जो उन्होंने हमें बताई है उसे हम अपने नई पीढ़ी को भी बता कर समझा कर,इस पवित्र सनातन परंपरा को जीवित रखने में अपना योगदान देगें। Shree Bhagwat Geeta Saar – Adhayay 14 – Prakrati Ke Teen Gun – भाग 1 – Hindi
श्लोक 14.1
श्रीभगवानुवाच |
परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम् |
यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः || १ ||
श्री-भगवान् उवाच – भगवान् ने कहा; परम् – दिव्य; भूयः – फिर; प्रवक्ष्यामि – कहूँगा; ज्ञानानाम् – समस्त ज्ञान का; ज्ञानम् – ज्ञान; उत्तमम् – सर्वश्रेष्ठ; यत् – जिसे; ज्ञात्वा – जानकर; मुनयः – मुनि लोग; सर्वे – समस्त; पराम् – दिव्य; सिद्धिम् – सिद्धि को; इतः – इस संसार से; गताः – प्राप्त किया |
भावार्थ
भगवान् ने कहा – अब मैं तुमसे समस्त ज्ञानों में सर्वश्रेष्ठ इस परम ज्ञान को पुनः कहूँगा, जिसे जान लेने पर समस्त मुनियों ने परम सिद्धि प्राप्त की है |
श्लोक 14.2
इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम सार्धम्यमागताः |
सर्गेSपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च || २ ||
इदम् – इस; ज्ञानम् – ज्ञान को; उपाश्रित्य – आश्रय बनाकर; मम – मेरा; साधार्म्यम् – समान प्रकृति को; आगताः – प्राप्त करके; सर्गे अपि – सृष्टि में भी; न – कभी नहीं; उपजायन्ते – उत्पन्न होते हैं; प्रलये – प्रलय में; न – न तो; व्यथन्ति – विचलित होते हैं; च – भी |
भावार्थ
इस ज्ञान में स्थिर होकर मनुष्य मेरी जैसी दिव्य प्रकृति (स्वभाव) को प्राप्त कर सकता है | इस प्रकार स्थित हो जाने पर वह न तो सृष्टि के समय उत्पन्न होता है और न प्रलय के समय विचलित होता है |
श्लोक 14.3
मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम् |
सम्भवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत || ३ ||
मम – मेरा; योनिः – स्त्रोत; महत् – सम्पूर्ण भौतिक जगत्; ब्रह्म – परम; तस्मिन् – उसमें; गर्भम् – गर्भ; दधामि – उत्पन्न करता हूँ; अहम् – मैं; सम्भवः – सम्भावना; सर्व-भूतानाम् – समस्त जीवों का; ततः – तत्पश्चात्; भवति – होता है; भारत – हे भरत पुत्र |
भावार्थ
हे भरतपुत्र! ब्रह्म नामक भौतिक वस्तु जन्म का स्त्रोत है और मैं इसी ब्रह्म को गर्भस्य करता हूँ, जिससे समस्त जीवों का जन्म होता है |
श्लोक 14.4
सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः |
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता || ४ ||
सर्व-योनिषु – समस्त योनियों में; कौन्तेय – हे कुन्तीपुत्र; मूर्तयः – स्वरूप; सम्भवन्ति – प्रकट होते हैं; याः – जो; तासाम् – उन सबों का; ब्रह्म – परम; महत् योनिः – जन्म स्त्रोत; अहम् – मैं; बीज-प्रदः – बीजप्रदाता; पिता – पिता |
भावार्थ
हे कुन्तीपुत्र! तुम यह समझ लो कि समस्त प्रकार की जीव-योनियाँ इस भौतिक प्रकृति में जन्म द्वारा सम्भव हैं और मैं उनका बीज-प्रदाता पिता हूँ |
श्लोक 14.5
सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः |
निबध्नान्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम् || ५ ||
सत्त्वम् – सतोगुण; रजः – रजोगुण; तमः – तमोगुण; इति – इस प्रकार; गुणाः – गुण; प्रकृति – भौतिक प्रकृति से; सम्भवाः – उत्पन्न; निबध्नन्ति – बाँधते हैं; महा-बाहो – हे बलिष्ठ भुजाओं वाले; देहे – इस शरीर में; देहिनम् – जीव को; अव्ययम् – नित्य, अविनाशी |
भावार्थ
भौतिक प्रकृति तीन गुणों से युक्त है | ये हैं – सतो, रजो तथा तमोगुण | हे महाबाहु अर्जुन! जब शाश्र्वत जीव प्रकृति के संसर्ग में आता है, तो वह इन गुणों से बँध जाता है |
श्लोक 14.6
तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम् |
सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ || ६ ||
तत्र – वहाँ; सत्त्वम् – सतोगुण; निर्मलत्वात् – भौतिक जगत् में शुद्धतम होने के कारण; प्रकाशकम् – प्रकाशित करता हुआ; अनामयम् – किसी पापकर्म के बिना; सुख – सुख की; सङ्गेन – संगति के द्वारा; बध्नाति – बाँधता है; ज्ञान – ज्ञान की; सङ्गेन – संगति से; च – भी; अनघ – हे पापरहित |
भावार्थ
हे निष्पाप! सतोगुण अन्य गुणों की अपेक्षा अधिक शुद्ध होने के करान प्रकाश प्रदान करने वाला और मनुष्यों को सारे पाप कर्मों से मुक्त करने वाला है | जो लोग इस गुण में स्थित होते हैं, वे सुख तथा ज्ञान के भाव से बँध जाते हैं |
श्लोक 14.7
रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्गसमुद्भवम् |
तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम् || ७ ||
रजो – रजोगुण; राग-आत्मकम् – आकांक्षा या काम से उत्पन्न; विद्धि – जानो; तृष्णा – लोभ से; सङग – संगति से; समुद्भवम् – उत्पन्न; तत् – वह; निबध्नाति – बाँधता है; कौन्तेय – हे कुन्तीपुत्र; कर्म-सङगेन – सकाम कर्म की संगति से; देहिनम् – देहधारी को |
भावार्थ
हे कुन्तीपुत्र! रजोगुण की उत्पत्ति असीम आकांक्षाओं तथा तृष्णाओं से होती है और इसी के कारण से यह देहधारी जीव सकाम कर्मों से बँध जाता है |
श्लोक 14.8
तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम् |
प्रमादालस्यनिद्राभिस्तनिबध्नाति भारत || ८ ||
तमः – तमोगुण; तु – लेकिन; अज्ञान-जम् – अज्ञान से उत्पन्न; विद्धि – जानो; मोहनम् – मोह; सर्व-देहिनाम् – समस्त देहधारी जीवों का; प्रमाद – पागलपन; निद्राभिः – तथा नींद द्वारा; तत् – वह; निबध्नाति – बाँधता है; भारत – हे भरतपुत्र |
भावार्थ
हे भरतपुत्र! तुम जान लो कि अज्ञान से उत्पन्न तमोगुण समस्त देहधारी जीवों का मोह है | इस गुण के प्रतिफल पागलपन (प्रमाद), आलस तथा नींद हैं, जो बद्धजीव को बाँधते हैं|
श्लोक 14.9
सत्त्वं सुखे सञ्जयति रजः कर्मणि भारत |
ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे सञ्जयत्युत || ९ ||
सत्त्वम् – सतोगुण; सुखे – सुख में; सञ्जयति – बाँधता है; रजः – रजोगुण; कर्मणि – सकाम कर्म में; भारत – हे भरतपुत्र; ज्ञानम् – ज्ञान को; आवृत्य – ढक कर; तु – लेकिन; तमः – तमोगुण; प्रमादे – पागलपन में; सञ्जयति – बाँधता है; उत – ऐसा कहा जाता है|
भावार्थ
हे भरतपुत्र! सतोगुण मनुष्य को सुख में बाँधता है, रजोगुण सकाम कर्म से बाँधता है और तमोगुण मनुष्य के ज्ञान को ढक कर उसे पागलपन से बाँधता है |
श्लोक 14.10
रजस्तमश्र्चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत |
रजः सत्त्वं तमश्र्चैव तमः सत्त्वं रजस्तथा || १० ||
रजः – रजोगुण; तमः – तमोगुण को; च – भी; अभिभूय – पार करके; सत्त्वम् – सतोगुण; भवति – प्रधान बनता है; भारत – हे भरतपुत्र; रजः – रजोगुण; सत्त्वम् – सतोगुण को; तमः – तमोगुण; च – भी; एव – उसी तरह; तमः – तमोगुण; सत्त्वम् – सतोगुण को; रजः – रजोगुण; तथा – इस प्रकार |
भावार्थ
हे भरतपुत्र! कभी-कभी सतोगुण रजोगुण तथा तमोगुण को परास्त करके प्रधान बन जाता है तो कभी रजोगुण सतो तथा तमोगुणों को परास्त कर देता है और कभी ऐसा होता है कि तमोगुण सतो तथा रजोगुणों को परास्त कर देता है | इस प्रकार श्रेष्ठता के लिए निरन्तर स्पर्धा चलती रहती है |
श्लोक 14.11
सर्वद्वारेषु देहेSस्मिन्प्रकाश उपजायते |
ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवृद्धं सत्त्वमित्युत || ११ ||
सर्व-द्वारेषु – सारे दरवाजों में; देहे अस्मिन् – इस शरीर में; प्रकाशः – प्रकाशित करने का गुण; उपजायते – उत्पन्न होता है; ज्ञानम् – ज्ञान; यदा – जब; तदा – उस समय; विद्यात् – जानो; विवृद्धम – बढ़ा हुआ; सत्त्वम् – सतोगुण; इति उत – ऐसा कहा गया है |
भावार्थ
सतोगुण की अभीव्यक्ति को तभी अनुभव किया जा सकता है, जब शरीर के सारे द्वार ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित होते हैं |
श्लोक 14.12
लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा |
रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ || १२ ||
लोभः – लोभ; प्रवृत्तिः – कार्य; आरम्भः – उद्यम; कर्मणाम् – कर्मों में; अशमः – अनियन्त्रित; स्पृहा – इच्छा; रजसि – रजोगुण में; एतानि – ये सब; जायन्ते – प्रकट होते हैं; विवृद्धे – अधिकता होने पर; भरत-ऋषभ – हे भरतवंशियों में प्रमुख |
भावार्थ
हे भरतवंशियों में प्रमुख! जब रजोगुण में वृद्धि हो जाती है, तो अत्यधिक आसक्ति, सकाम कर्म, गहन उद्यम तथा अनियन्त्रित इच्छा एवं लालसा के लक्षण प्रकट होते हैं |
श्लोक 14.13
अप्रकाशोSप्रवृत्तिश्र्च प्रमादो मोह एव च |
तमस्येतानि जायन्ते विवृद्धे कुरुनन्दन || १३ ||
अप्रकाशः – अँधेरा; अप्रवृत्तिः – निष्क्रियता; च – तथा; प्रमादः – पागलपन; मोहः – मोह; एव – निश्चय ही; च – भी; तमसि – तमोगुण; एतानि – ये; जायन्ते – प्रकट होते हैं; विवृद्धे – बढ़ जाने पर; कुरु-नन्दन – हे कुरुपुत्र |
भावार्थ
जब तमोगुण में वृद्धि हो जाती है, तो हे कुरुपुत्र! अँधेरा, जड़ता, प्रमत्तता तथा मोह का प्राकट्य होता है |
श्लोक 14.14
यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु प्रलयं याति देहभृत |
तदोत्तमविदां लोकनमलान्प्रतिपद्दते || १४ ||
यदा – जब; सत्त्वे – सतोगुण में ; प्रवृद्धे – बढ़ जाने पर ; तु – लेकिन ; प्रलयं – संहार , विनाश; याति – जाता है; देह -भृत – देहधारी तदा – उस समय उत्तम – विदाम – ऋषियोँ के लोकन – लोक को अमलान – शुद्ध प्रतिपद्दते – प्राप्त करता है।
भावार्थ
जब कोई सतोगुण में मरता है, तो उसे महर्षियों के विशुद्ध उच्चतर लोकों की प्राप्ति होती है।
श्लोक 14.15
रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसङ्गिषु जायते |
तथा प्रलीनस्तमसि मूढ़योनिषु जायते || १५ ||
रजसि – रजोगुण में; प्रलयम् – प्रलय को; गत्वा – प्राप्त करके; कर्म-सङ्गिषु – सकाम कर्मियों की संगति में; जायते – जन्म लेता है; तथा – उसी प्रकार; प्रलीनः – विलीन होकर; तमसि – अज्ञान में; मूढ-योनिषु – पशुयोनि में; जायते – जन्म लेता है |
भावार्थ
जब कोई रजोगुण में मरता है, तो वह सकाम कर्मियों के बीच जन्म ग्रहण करता है और जब कोई तमोगुण में मरता है, तो वह पशुयोनि में जन्म धारण करता है |
श्लोक 14.16
कर्मणः सुकृतस्याहु: सात्त्विकं निर्मलं फलम् |
रजसस्तु फलं दु:खमज्ञानं तमसः फलम् || १६ ||
कर्मणः – कर्म का; सु-कृतस्य – पुण्य; आहुः – कहा गया है; सात्त्विकम् – सात्त्विक; निर्मलम् – विशुद्ध; फलम् – फल; रजसः – रजोगुण का; तु – लेकिन; फलम् – फल; दुःखम् – दुख; अज्ञानम् – व्यर्थ; तमसः – तमोगुण का; फलम् – फल |
भावार्थ
पुण्यकर्म का फल शुद्ध होता है और सात्त्विक कहलाता है । लेकिन रजोगुण में सम्पन्न कर्म का फल दुख होता है और तमोगुण में किये गये कर्म मूर्खता में प्रतिफलित होते हैं ।
श्लोक 14.17
सत्त्वात्सञ्जायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च |
प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च || १७ ||
सत्त्वात् – सतोगुण से; सञ्जायते – उत्पन्न होता है; ज्ञानम् – ज्ञान; रजसः – रजोगुण से; लोभः – लालच; एव – निश्चय ही; च – भी; प्रमाद – पागलपन; मोहौ – तथा मोह; तमसः – तमोगुण से; भवतः – होता है; अज्ञानम् – अज्ञान; एव – निश्चय ही; च – भी |
भावार्थ
सतोगुण से वास्तविक ज्ञान उत्पन्न होता है, रजोगुण से लोभ उत्पन्न होता है और तमोगुण से अज्ञान, प्रमाद और मोह उत्पन्न होता हैं |
श्लोक 14.18
ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः |
जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः || १८ ||
ऊर्ध्वम् – ऊपर; गच्छन्ति – जाते हैं; सत्त्व-स्थाः – जो सतोगुण में स्थित हैं; मध्ये – मध्य में; तिष्ठन्ति – निवास करते हैं; राजसाः – रजोगुणी; जघन्य – गर्हित; वृत्ति-स्थाः – जिनकी वृत्तियाँ या व्यवसाय; अधः – नीचे, निम्न; गच्छन्ति – जाते हैं; तामसाः – तमोगुणी लोग |
भावार्थ
सतोगुणी व्यक्ति क्रमशः उच्च लोकों को ऊपर जाते हैं,रजोगुणी इसी पृथ्वीलोक में रह जाते हैं, और जो अत्यन्त गर्हित तमोगुण में स्थित हैं, वे नीचे नरक लोकों को जाते हैं ।
श्लोक 14.19
नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति |
गुनेभ्यश्र्च परं वेत्ति मद्भावं सोSधिगच्छति || १९ ||
न – नहीं; अन्यम् – दूसरा; गुणेभ्यः – गुणों के अतिरिक्त; कर्तारम् – करता; यदा – जब; द्रष्टा – देखने वाला; अनुपश्यति – ठीक से देखता है; गुणेभ्यः – गुणों से; च – तथा; परम् – दिव्य; वेत्ति – जानता है; मत्-भावम् – मेरे दिव्य स्वभाव को; सः – वह; अधिगच्छति – प्राप्त होता है |
भावार्थ
जब कोई यह अच्छी तरह जान लेता है कि समस्त कार्यों में प्रकृति के तीनों गुणों के अतिरिक्त अन्य कोई करता नहीं है और जब वह परमेश्र्वर को जान लेता है, जो इन तीनों गुणों से परे है, तो वह मेरे दिव्य स्वभाव को प्राप्त होता है |
श्लोक 14.20
गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान् |
जन्ममृत्युजरादु:खैर्विमुक्तोSमृतमश्र्नुते || २० ||
गुणान् – गुणों को; एतान् – इन सब; अतीत्य – लाँघ कर; त्रीन् – तीन; देही – देहधारी; देह – शरीर; समुद्भवान् – उत्पन्न; जन्म – जन्म; मृत्यु – मृत्यु; जरा – बुढ़ापे का; दुःखै – दुखों से; विमुक्तः – मुक्त; अमृतम् – अमृत; अश्नुते – भोगता है ।
भावार्थ
जब देहधारी जीव भौतिक शरीर से सम्बद्ध इन तीनों गुणों को लाँघने में समर्थ होता है, तो वह जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा तथा अनेक कष्टों से मुक्त हो सकता है और इसी जीवन में अमृत का भोग कर सकता है ।
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