श्रीमद्भागवत गीता – सार | अध्याय 15 : पुरुषोत्तम योग | Shree Bhagwat Geeta Saar – Adhyay 15 – Hindi – भाग 1

जय श्री राधे कृष्णा ! आज हम श्री भगवतगीता के पन्द्रहवे अध्याय – ‘पुरुषोत्तम योग पर चर्चा करेंगे। हमारी आशा है आप हर एक शब्द का अर्थ समझ कर चरितार्थ करेंगे व् इस बदलते युग में प्रभु श्री कृष्ण के उपदेशों , उनकी सीख , उनके विचारों और जीवन की सत्यता जो उन्होंने हमें बताई है उसे हम अपने नई पीढ़ी को भी बता कर समझा कर,इस पवित्र सनातन परंपरा को जीवित रखने में अपना योगदान देगें। Shree Bhagwat Geeta Saar – Adhayay 15 – Purushottam Yog – भाग 1 – Hindi

श्लोक 15.1

श्रीभगवानुवाच |

उर्ध्वमूलमधःशाखमश्र्वत्थं प्राहुरव्ययम् |
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् || १ ||


श्रीभगवान् उवाच – भगवान् ने कहा; उर्ध्व-मूलम् – उपर की ओर जड़ें; अधः – नीचे की ओर; शाखम् – शाखाएँ; अश्र्वत्थम् – अश्र्वत्थ वृक्ष को; प्राहुः – कहा गया है; अव्ययम् – शाश्र्वत; छन्दांसि – वैदिक स्तोत्र; यस्य – जिसके; पर्णानि – पत्ते; यः – जो कोई; तम् – उसको; वेद – जानता है; सः – वह; वेदवित् – वेदों के ज्ञाता |

भावार्थ

भगवान् ने कहा – कहा जाता है कि एक शाश्र्वत वृक्ष है, जिसकी जड़े तो ऊपर की ओर हैं और शाखाएँ नीचे की ओर तथा पत्तियाँ वैदिक स्तोत्र हैं । जो इस वृक्ष को जानता है, वह वेदों का ज्ञाता है ।

श्लोक 15.2

अधश्र्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः |
अधश्र्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके || २ ||
अधः – नीचे; च – तथा; उर्ध्वम् – ऊपर की ओर; प्रसृताः – फैली हुई; तस्य – उसकी; शाखाः – शाखाएँ; गुण – प्रकृति के गुणों द्वारा; प्रवृद्धा: – विकसित; विषय – इन्द्रियविषय; प्रवालाः – टहनियाँ; अधः – नीचे की ओर; च – तथा; मूलानि – जड़ों को; अनुसन्ततानि – विस्तृत; कर्म – कर्म करने के लिए; अनुबन्धीनि – बँधा; मनुष्य-लोके – मानव समाज के जगत् में ।

भावार्थ

इस वृक्ष की शाखाएँ ऊपर तथा नीचे फैली हुई हैं और प्रकृति के तीन गुणों द्वारा पोषित हैं । इसकी टहनियाँ इन्द्रियविषय हैं । इस वृक्ष की जड़ें नीचे की ओर भी जाती हैं, जो मानवसमाज के सकाम कर्मों से बँधी हुई हैं ।

Bhagwat Geeta Saar hindi
Radha-Govind-Indore-Madhya-Pradesh

श्लोक 15.3 – 4

न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च सम्प्रतिष्ठा |
अश्र्वत्थमेनं सुविरुढमूल-मसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा || ३ ||

ततः पदं तत्परिमार्गितव्यं यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः |
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी || ४ ||

न – नहीं; रूपम् – रूप; अस्य – इस वृक्ष का; इह – इस संसार में; तथा – भी; उपलभ्यते – अनुभव किया जा सकता है; न – कभी नहीं; च – भी; आदिः – प्रारम्भ; न – कभी नहीं; च – भी; सम्प्रतिष्ठा – नींव; अश्र्वत्थम् – अश्र्वत्थ वृक्ष को; एनम् – इस; सु-विरूढ – अत्यन्त दृढ़ता से; मूलम् – जड़वाला; असङग-शस्त्रेण – विरक्ति के हथियार से; दृढेन – दृढ़; छित्वा – काट कर; ततः – तत्पश्चात्; पदम् – स्थिति को; तत् – उस; परिमार्गितव्यम् – खोजना चाहिए; यस्मिन – जहाँ; गताः – जाकर; न – कभी नहीं; निवर्तन्ति – वापस आते हैं; भूयः – पुनः; तम् – उसको; एव – ही; च – भी; आद्यम् – आदि; पुरुषम् – भगवान् की; प्रपद्ये – शरण में जाता हूँ; यतः – जिससे; प्रवृत्तिः – प्रारम्भ; प्रसृता – विस्तीर्ण; पुराणी – अत्यन्त पुरानी |

भावार्थ

इस वृक्ष के वास्तविक स्वरूप का अनुभव इस जगत् में नहीं किया जा सकता | कोई भी नहीं समझ सकता कि इसका आदि कहाँ है, अन्त कहाँ है या इसका आधार कहाँ है? लेकिन मनुष्य को चाहिए कि इस दृढ मूल वाले वृक्ष को विरक्ति के शस्त्र से काट गिराए | तत्पश्चात् उसे ऐसे स्थान की खोज करनी चाहिए जहाँ जाकर लौटना न पड़े और जहाँ उस भगवान् की शरण ग्रहण कर ली जाये, जिससे अनादि काल से प्रत्येक का सूत्रपात तथा विस्तार होता आया है |

श्लोक 15.5

निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः ।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञै-र्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत् ॥ १५- ५ ॥

निः-रहित; मान-झूठी प्रतिष्ठा; मोहाः-तथा मोह; जित-जीता गया; सङ्ग-संगति की; दोषाः-त्रुटियाँ; अध्यात्म-आध्यात्मिक ज्ञान में; नित्याः-शाश्र्वतता में; विनिवृत्तः-विलग; कामाः-काम से; द्वन्द्वैः-द्वैत से; विमुक्ताः-मुक्त; सुख-दुःख-सुख तथा दुख; संज्ञैः-नामक; गच्छन्ति-प्राप्त करते हैं; अमूढाः-मोहरहित; पदम्-पद,स्थान को; अव्ययम्-शाश्र्वत; तत्-उस ।

भावार्थ

जो झूठी प्रतिष्ठा, मोह तथा कुसंगति से मुक्त हैं, जो शाश्र्वत तत्त्व को समझते हैं, जिन्होंने भौतिक काम को नष्ट कर दिया है, जो सुख तथा दुख के द्वन्द्व से मुक्त हैं और जो मोहरहित होकर परम पुरुष के शरणागत होना चाहते हैं, वे उस शाश्र्वत राज्य को प्राप्त होते हैं ।

श्लोक 15.6

न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः |
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम || ६ ||

-नहीं; तत्-वह; भासयते-प्रकाशित करता है; सूर्यः-सूर्य; न-न तो; शशाङकः -चन्द्रमा; न – न तो; पावकः – अग्नि, बिजली; यत् – जहाँ; गत्वा – जाकर; न – कभी नहीं; निवर्तन्ते – वापस आते हैं; तत्-धाम – वह धाम; परमम् – परम; मम – मेरा |

भावार्थ

वह मेरा परम धाम न तो सूर्य या चन्द्र के द्वारा प्रकाशित होता है और न अग्नि या बिजली से । जो लोग वहाँ पहुँच जाते हैं, वे इस भौतिक जगत् में फिर से लौट कर नहीं आते ।

Bhagwat Geeta Saar with Pictures

Bhagwat Geeta Saar
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श्लोक 15.7

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः |
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति || ७ ||

मम – मेरा; एव – निश्चय ही; अंशः – सूक्ष्म कण; जीव-लोके – बद्ध जीवन के संसार में; जीव-भूतः – बद्ध जीव; सनातनः – शाश्र्वत; मनः – मन; षष्ठानि – छह; इन्द्रियाणि – इन्द्रियों समेत; प्रकृति – भौतिक प्रकृति में; स्थानि – स्थित; कर्षति – संघर्ष करता है ।

भावार्थ

इस बद्ध जगत् में सारे जीव मेरे शाश्र्वत अंश हैं । बद्ध जीवन के कारण वे छहों इन्द्रियों के घोर संघर्ष कर रहे हैं, जिसमें मन भी सम्मिलित है ।

श्लोक 15.8

शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्र्वरः |
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाश्यात् || ८ ||

शरीरम् – शरीर को; यत् – जिस; अवाप्नोति – प्राप्त करता है; यत् – जिस; च – तथा; अपि – भी; उत्क्रामति – त्यागता है; ईश्र्वरः – शरीर का स्वामी; गृहीत्वा – ग्रहण करके; एतानि – इन सबको; संयाति – चला जाता है; वायुः – वायु; गन्धान् – महक को; आशयात् – स्त्रोत से |

भावार्थ

इस संसार में जीव अपनी देहात्म बुद्धि को एक शरीर से दूसरे में उसी तरह ले जाता है, जिस प्रकार वायु सुगन्धि को ले जाता है । इस प्रकार वह एक शरीर धारण करता है और फिर इसे त्याग कर दूसरा शरीर धारण करता है ।

श्लोक 15.9

श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च |
अधिष्ठाय मनश्र्चायं विषयानुपसेवते || ९ ||

क्षोत्रम् – कान; चक्षुः – आँखें; स्पर्शनम् – स्पर्श; च – भी; रसनम् – जीभ; घ्राणम् – सूँघने की शक्ति; एव – भी; च – तथा; अधिष्ठाय – स्थित होकर; मनः – मन; च – भी; अयम् – यह; विषयान् – इन्द्रियविषयों को; उपसेवते – भोग करता है |

भावार्थ

इस प्रकार दूसरा स्थूल शरीर धारण करके जीव विशेष प्रकार का कान, आँख, जीभ, नाक तथा स्पर्श इन्द्रिय (त्वचा) प्राप्त करता है, जो मन के चारों ओर संपुंजित है | इस प्रकार वह इन्द्रियविषयों के एक विशिष्ट समुच्चय का भोग करता है |

श्लोक 15.10

उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जा नं वा गुणान्वितम् |
विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः || १० ||

उत्क्रामन्तम् – शरीर त्यागते हुए; स्थितम् – शरीर में रहते हुए; वा अपि – अथवा; भुञ्जानम् – भोग करते हुए; वा – अथवा; गुण-अन्वितम् – प्रकृति के गुणों के अधीन; विमूढाः – मुर्ख व्यक्ति; न – कभी नहीं; अनुपश्यति – देख सकते हैं; ज्ञान-चक्षुषः – ज्ञान रूपी आँखों वाले |

भावार्थ

मूर्ख न तो समझ पाते हैं कि जीव किस प्रकार अपना शरीर त्याग सकता है, न ही वे यह समझ पाते हैं कि प्रकृति के गुणों के अधीन वह किस तरह के शरीर का भोग करता है । लेकिन जिसकी आँखें ज्ञान से प्रशिक्षित होती हैं, वह यह सब देख सकता है ।

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