जय श्री राधे कृष्णा ! आज हम श्री भगवतगीता के तेरहवे अध्याय – प्रकृति, पुरुष तथा चेतना पर चर्चा करेंगे। हमारी आशा है आप हर एक शब्द का अर्थ समझ कर चरितार्थ करेंगे व् इस बदलते युग में प्रभु श्री कृष्ण के उपदेशों , उनकी सीख , उनके विचारों और जीवन की सत्यता जो उन्होंने हमें बताई है उसे हम अपने नई पीढ़ी को भी बता कर समझा कर,इस पवित्र सनातन परंपरा को जीवित रखने में अपना योगदान देगें। Shree Bhagwat Geeta Saar – Adhayay 13 – Prakrati Purush aur Chetna – Hindi
श्लोक 13.1 – 2
अर्जुन उवाच
प्रकृतिं पुरुषं चैव क्षेत्रं क्षेत्रज्ञमेव च |
एतद्वेदितुमिच्छामि ज्ञानं ज्ञेयं च केशव ||१||
अर्जुनः उवाच – अर्जुन ने कहा; प्रकृतिम् -प्रकृति; पुरुषम् – भोक्ता; च – भी; एव – निश्चय ही; क्षेत्रम् – क्षेत्र, खेत; क्षेत्र-ज्ञम् – खेत को जानने वाला; एव – निश्चय ही; च – भी; एतत् – यह सारा; वेदितुम् – जानने के लिए; इच्छामि – इच्छुक हूँ; ज्ञानम् – ज्ञान; ज्ञेयम् – ज्ञान का लक्ष्य; च – भी; केशव – हे कृष्ण।
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श्रीभगवानुवाच
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते |
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः ||२ ||
श्रीभगवान् उवाच – भगवान् ने कहा; इदम् – यह;शरीरम् – शरीर; कौन्तेय – हे कुन्तीपुत्र; क्षेत्रम् – खेत; इति – इस प्रकार; अभिधीयते – कहलाता है; एतत् – यह; यः – जो; वेत्ति – जानता है; तम् – उसको; प्राहुः – कहा जाता है; क्षेत्र-ज्ञः – खेत को जानने वाला; इति – इस प्रकार; तत्-विदः – इसे जानने वालों के द्वारा |
भावार्थ
अर्जुन ने कहा – हे कृष्ण! मैं प्रकृति एवं पुरुष (भोक्ता), क्षेत्र एवं क्षेत्रज्ञ तथा ज्ञान एवं ज्ञेय के विषय में जानने का इच्छुक हूँ |श्रीभगवान् ने कहा – हे कुन्तीपुत्र! यह शरीर क्षेत्र कहलाता है और इस क्षेत्र को जानने वाला क्षेत्रज्ञ है |
श्लोक 13.3

क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत |
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम || ३ ||
क्षेत्र-ज्ञम् – क्षेत्र का ज्ञाता; च – भी; अपि – निश्चय ही; माम् – मुझको; विद्धि – जानो; सर्व – समस्त; क्षेत्रेषु – शरीर रूपी क्षेत्रों में; भारत – हे भरत के पुत्र; क्षेत्र – कर्म-क्षेत्र (शरीर); क्षेत्र-ज्ञयोः – तथा क्षेत्र के ज्ञाता का; ज्ञानम् – ज्ञान; यत् – जो; तत् – वह; ज्ञानम् – ज्ञान; मतम् – अभिमत; मम – मेरा |
भावार्थ
हे भरतवंशी, तुम यह जान लो कि मैं समस्त शरीरों को जानने वाला भी हूँ और इस शरीर तथा ज्ञाता को जानने का नाम ज्ञान है। यह मेरी राय है।
श्लोक 13.4
तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च यद्विकारि यतश्र्च यत् |
स च यो यत्प्रभावश्र्च तत्समासेन मे श्रृणु || ४ ||
तत् – वह; क्षेत्रम् – कर्मक्षेत्र; यत् – जो; च – भी; यादृक् – जैसा है; च – भी; यत् – जो; विकारि – परिवर्तन; यतः – जिससे; च – भी; यत् – जो; सः – वह; च – भी; यः – जो; यत् – जो; प्रभावः – प्रभाव; च – भी; तत् – उस; समासेन – संक्षेप में; मे – मुझसे; शृणु – समझो, सुनो |
भावार्थ
अब तुम मुझसे यह सब संक्षेप में सुनो कि कर्मक्षेत्र क्या है, यह किस प्रकार बना है, इसमें क्या परिवर्तन होते हैं, यह कहाँ से उत्पन्न होता है, इस कर्मक्षेत्र को जानने वाला कौन है और उसके क्या प्रभाव हैं |
श्लोक 13.5
ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधै: पृथक् |
ब्रह्मसूत्रपदैश्र्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्र्चितै: || ५ ||
ऋषिभिः – बुद्धिमान ऋषियों द्वारा; बहुधा – अनेक प्रकार से; गीतम् – वर्णित; छन्दोभिः – वैदिक मन्त्रों द्वारा; विविधैः – नाना प्रकार के; पृथक् – भिन्न-भिन्न; ब्रह्म-सूत्र – वेदान्त के; पदैः – नीतिवचनों द्वारा; च – भी; एव – निश्चित रूप से; हेतु-मद्भिः – कार्य-कारण से; विनिश्र्चितैः – निश्चित |
भावार्थ
विभिन्न वैदिक ग्रंथों में विभिन्न ऋषियों ने कार्यकलापों के क्षेत्र तथा उन कार्यकलापों के ज्ञाता के ज्ञान का वर्णन किया है | इसे विशेष रूप से वेदान्त सूत्र में कार्य-कारण के समस्त तर्क समेत प्रस्तुत किया गया है |
श्लोक 13.6
महाभूतान्यहङ्कारो बुद्धिरव्यक्तमेव च |
इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः || ६ ||
महा-भूतानि – स्थूल तत्त्व; अहङकार – मिथ्या अभिमान; बुद्धिः – बुद्धि; अव्यक्तम् – अप्रकट; एव – निश्चय ही; च – भी; इन्द्रियाणि – इन्द्रियाँ; दश-एकम् – ग्यारह; च – भी; पञ्च – पाँच; च – भी; इन्द्रिय-गो-चराः – इन्द्रियों के विषय;
भावार्थ
पंच महाभूत, अहंकार, बुद्धि, अव्यक्त (तीनों गुणों की अप्रकट अवस्था), दसों इन्द्रियाँ तथा मन, पाँच इन्द्रियविषय….
श्लोक 13.7
इच्छा द्वेषः सुखं दु:खं सङ्घातश्र्चेतना धृतिः |
एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम् || ७ ||
इच्छा – इच्छा; द्वेषः – घृणा; सुखम् – सुख; दुःखम् – दुख; सङघातः – समूह; चेतना – जीवन के लक्षण; धृतिः – धैर्य; एतत् – यह सारा; क्षेत्रम् – कर्मों का क्षेत्र; समासेन – संक्षेप में; स-विकारम् – अन्तः-क्रियाओं सहित; उदाहृतम् – उदाहरणस्वरूप कहा गया |
भावार्थ
इच्छा, द्वेष, सुख, दुख, संघात, जीवन के लक्षण तथा धैर्य – इन सब को संक्षेप में कर्म का क्षेत्र तथा उसकी अन्तः-क्रियाएँ (विकार) कहा जाता है |

श्लोक 13.8-12
अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम् |
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः || ८ ||
अमानित्वम् – विनम्रता; अदाम्भित्वम् – दम्भविहीनता; अहिंसा – अहिंसा; क्षान्तिः – सहनशीलता, सहिष्णुता; आर्जवम् – सरलता; आचार्य-उपासनम् – प्रामाणिक गुरु के पास जाना; शौचम् – पवित्रता; स्थैर्यम् – दृढ़ता; आत्म-विनिग्रहः – आत्म-संयम ….
विनम्रता, दम्भहीनता, अहिंसा, सहिष्णुता, सरलता, प्रामाणिक गुरु के पास जाना, पवित्रता, स्थिरता, आत्मसंयम …..
इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्कार एव च |
जन्ममृत्युजराव्याधिदु:खदोषानुदर्शनम् || ९ ||
इन्द्रिय-अर्थेषु – इन्द्रियों के मामले में; वैराग्यम् – वैराग्य; अनहंकारः – मिथ्या अभिमान से रहित; एव – निश्चय ही; च – भी; जन्म – जन्म; मृत्यु – मृत्यु; जरा – बुढ़ापा; व्याधि – तथा रोग का; दुःख – दुख का; दोष – बुराई; अनुदर्शनम् – देखते हुए;
इन्द्रियतृप्ति के विषयों का परित्याग, अहंकार का अभाव, जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था तथा रोग के दोषों की अनुभूति, वैराग्य, सन्तान, स्त्री, घर तथा अन्य वस्तुओं की ममता से मुक्ति, अच्छी तथा बुरी घटनाओं के प्रति समभाव, ……
असक्तिरनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु |
नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु || १० ||
आसक्तिः – बिना आसक्ति के; अनभिष्वङगः – बिना संगति के ; पुत्र – पुत्र; दार – स्त्री; गृह-आदिषु – घर आदि में; नित्यम् – निरन्तर; च – भी; सम-चित्तत्वम् – समभाव; इष्ट – इच्छित; अनिष्ट – अवांछित, उपपत्तिषु – प्राप्त करके;
मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी |
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि || ११ ||
मयि – मुझ में; च – भी; अनन्य-योगेन – अनन्य भक्ति से; भक्तिः – भक्ति; अव्यभिचारिणी – बिना व्यवधान के; विविक्त – एकांत; देश – स्थानों की; सेवित्वम् – आकांक्षा करते हुए; अरतिः – अनासक्त भाव से; जन-संसदि – सामान्य लोगों को;
अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् |
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोSन्यथा || १२ ||
अध्यात्म – आत्मा सम्बन्धी; ज्ञान – ज्ञान में; नित्यत्वम् – शाश्र्वतता; तत्त्वज्ञान – सत्य के ज्ञान के; अर्थ – हेतु; दर्शनम् – दर्शनशास्त्र; एतत् – यह सारा; ज्ञानम् – ज्ञान; इति – इस प्रकार; प्रोक्तम् – घोषित; अज्ञानम् – अज्ञान; यत् – जो; अतः – इससे; अन्यथा – अन्य, इतर |
भावार्थ
विनम्रता, दम्भहीनता, अहिंसा, सहिष्णुता, सरलता, प्रामाणिक गुरु के पास जाना, पवित्रता, स्थिरता, आत्मसंयम, इन्द्रियतृप्ति के विषयों का परित्याग, अहंकार का अभाव, जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था तथा रोग के दोषों की अनुभूति, वैराग्य, सन्तान, स्त्री, घर तथा अन्य वस्तुओं की ममता से मुक्ति, अच्छी तथा बुरी घटनाओं के प्रति समभाव, मेरे प्रति निरन्तर अनन्य भक्ति, एकान्त स्थान में रहने की इच्छा, जन समूह से विलगाव, आत्म-साक्षात्कार की महत्ता को स्वीकारना, तथा परम सत्य की दार्शनिक खोज – इन सबको मैं ज्ञान घोषित करता हूँ और इनके अतिरिक्त जो भी है, वह सब अज्ञान है |
श्लोक 13.13
ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्र्नुते |
अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते || १३ ||
ज्ञेयम् – जानने योग्य; यत् – जो; तत् – वह; प्रवक्ष्यामि – अब मैं बतलाऊँगा; यत् – जिसे; ज्ञात्वा – जानकर; अमृतम् – अमृत का; अश्नुते – आस्वादन करता है; अनादि – आदि रहित; मत्-परम् – मेरे अधीन; ब्रह्म – आत्मा; न – न तो; सत् – कारण; तत् – वह; न – न तो; असत् – कार्य, प्रभाव; उच्यते – कहा जाता है |
भावार्थ
अब मैं तुम्हें ज्ञेय के विषय में बतलाऊँगा, जिसे जानकर तुम नित्य ब्रह्म का आस्वादन कर सकोगे | यह ब्रह्म या आत्मा, जो अनादि है और मेरे अधीन है, इस भौतिक जगत् के कार्य-करण से परे स्थित है |
श्लोक 13.14
सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोSक्षिशिरोमुखम् |
सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति || १४ ||
सर्वतः – सर्वत्र; पाणि – हाथ; पादम् – पैर; तत् – वह; सर्वतः – सर्वत्र; अक्षि – आँखें; शिरः – सर; मुखम् – मुँह; सर्वतः – सर्वत्र; श्रुति-मत् – कानों से युक्त; लोके – संसार में; सर्वम् – हर वस्तु; आवृत्य – व्याप्त करके; तिष्ठति – आवस्थित है |
भावार्थ
उनके हाथ, पाँव, आखें, सिर तथा मुँह तथा उनके कान सर्वत्र हैं | इस प्रकार परमात्मा सभी वस्तुओं में व्याप्त होकर अवस्थित है |
श्लोक 13.15
सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम् |
असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च ||१५ ||
सर्व – समस्त; इन्द्रिय – इन्द्रियों का; गुण – गुणों का; आभासम् – मूल स्त्रोत; सर्व – समस्त; इन्द्रिय – इन्द्रियों से; विवर्जितम् – विहीन; असक्तम् – अनासक्त; सर्वभृत् – प्रत्येक का पालनकर्ता; च – भी; एव – निश्चय ही; निर्गुणम् – गुणविहीन; गुण-भोक्तृ – गुणों का स्वामी; च – भी |
भावार्थ
परमात्मा समस्त इन्द्रियों के मूल स्त्रोत हैं, फिर भी वे इन्द्रियों से रहित हैं | वे समस्त जीवों के पालनकर्ता होकर भी अनासक्त हैं | वे प्रकृति के गुणों के परे हैं, फिर भी वे भौतिक प्रकृति के समस्त गुणों के स्वामी हैं |
श्लोक 13.16
बहिरन्तश्र्च भूतानामचरं चरमेव च |
सुक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत || १६ ||
बहिः – बाहर; अन्तः – भीतर; च – भी; भूतानाम् – जीवों का; अचरम् – जड़; चरम् – जंगम; एव – भी; च – तथा; सूक्ष्मत्वात् – सूक्ष्म होने के कारण; तत् – वह; अविज्ञेयम् – अज्ञेय; दूर-स्थम् – दूर स्थित; च – भी; अन्तिके – पास; च – तथा; तत् – वह |
भावार्थ
परमसत्य जड़ तथा जंगम समस्त जीवों के बाहर तथा भीतर स्थित हैं | सूक्ष्म होने के कारण वे भौतिक इन्द्रियों के द्वारा जानने या देखने से परे हैं | यद्यपि वे अत्यन्त दूर रहते हैं, किन्तु हम सबों के निकट भी हैं |
श्लोक 13.17
अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम् |
भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च || १७ ||
अविभक्तम् – बिना विभाजन के; च – भी; भूतेषु – समस्त जीवों में; विभक्तम् – बँटा हुआ; इव – मानो; च – भी; स्थितम् – स्थित; भूत-भर्तृ – समस्त जीवों का पालक; च – भी; तत् – वह; ज्ञेयम् – जानने योग्य; ग्रसिष्णु – निगलते हुए, संहार करने वाला; प्रभविष्णु – विकास करते हुए; च – भी |
भावार्थ
यद्यपि परमात्मा समस्त जीवों के मध्य विभाजित प्रतीत होता है, लेकिन वह कभी भी विभाजित नहीं है | वह एक रूप में स्थित है | यद्यपि वह प्रत्येक जीव का पालनकर्ता है, लेकिन यह समझना चाहिए कि वह सबों का संहारकरता है और सबों को जन्म देता है |
श्लोक 13.18
ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते |
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम् || १८ ||
ज्योतिषाम् – समस्त प्रकाशमान वस्तुओं में; अपि – भी; तत् – वह; ज्योतिः – प्रकाश का स्त्रोत; तमसः – अन्धकार; परम् – परे; उच्यते – कहलाता है; ज्ञानम् – ज्ञान; ज्ञेयम् – जानने योग्य; ज्ञान-गम्यम् – ज्ञान द्वारा पहुँचने योग्य; हृदि – हृदय में; सर्वस्य – सब; विष्ठितम् – स्थित |
भावार्थ
वे समस्त प्रकाशमान वस्तुओं के प्रकाशस्त्रोत हैं | वे भौतिक अंधकार से परे हैं और अगोचर हैं | वे ज्ञान हैं, ज्ञेय हैं और ज्ञान के लक्ष्य हैं | वे सबके हृदय में स्थित हैं |
श्लोक 13.19
इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः |
मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते || १९ ||
इति – इस प्रकार; क्षेत्रम् – कर्म का क्षेत्र (शरीर); तथा – भी; ज्ञानम् – ज्ञान; ज्ञेयम् – जानने योग्य; च – भी; उक्तम् – कहा गया; समासतः – संक्षेप में; मत्-भक्तः – मेरा भक्त; एतत् – यह सब; विज्ञाय – जान कर; मत्-भावाय – मेरे स्वभाव को; उपपद्यते – प्राप्त करता है |
भावार्थ
इस प्रकार मैंने कर्म क्षेत्र (शरीर), ज्ञान तथा ज्ञेय का संक्षेप में वर्णन किया है | इसे केवल मेरे भक्त ही पूरी तरह समझ सकते हैं और इस तरह मेरे स्वभाव को प्राप्त होते हैं |
श्लोक 13.20
प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्धयनादी उभावपि |
विकारांश्र्च गुणांश्र्चैव विद्धि प्रकृतिसम्भवान् || २० ||
प्रकृतिम् – भौतिक प्रकृति को; पुरुषम् – जीव को; च – भी; एव – निश्चय ही; विद्धि – जानो; अनादी – आदिरहित; उभौ – दोनों; अपि – भी; विकारान् – विकारों को; च – भी; गुणान् – प्रकृति के तीन गुण; च – भी; एव – निश्चय ही; विद्धि – जानो; प्रकृति – भौतिक प्रकृति से; सम्भवान् – उत्पन्न |
भावार्थ
प्रकृति तथा जीवों को अनादि समझना चाहिए | उनके विकार तथा गुण प्रकृतिजन्य हैं |
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